सोमवार, 18 जनवरी 2016

यक़ीन है कि गुमाँ है मुझे नहीं मालूम - अबरार अहमद

यक़ीन है कि गुमाँ है मुझे नहीं मालूम
ये आग है कि धुआँ है मुझे नहीं मालूम

ये हर तरफ़ है कोई महफ़िल-ए-तरब बरपा
कि बज़्म-ए-ग़म-ए-ज़दगाँ है मुझे नहीं मालूम

लिए तो फिरता हूँ इक मौसम-ए-वजूद को मैं
बहार है कि ख़िज़ाँ है मुझे नहीं मालूम

वो रंग-ए-गुल तो उसी ख़ाक में घुला था कहीं 
मगर महक वो कहाँ है मुझे नहीं मालूम 

ख़बर तो है कि यहीं क़र्या-ए-मलाल भी है 
ये कौन महव-ए-फ़ुगाँ है मुझे नहीं मालूम

मैं तुझ से दूर उसी दश्त-ए-ना-रसी में हूँ गुम
इधर तू नौहा-कुनाँ है मुझे नहीं मालूम 

ये दाग़-ए-इश्क़ जो मिटता भी है चमकता भी है 
ये ज़ख़्म है कि निशाँ है मुझे नहीं मालूम

गुज़रता जाता हूँ इक अर्सा-ए-गुरेज़ से मैं 
ये ला-मकाँ कि मकाँ है मुझे नहीं मालूम 

रवाँ-दवाँ तो है ये जू-ए-ज़िंदगी हर दम
मगर किधर को रवाँ है मुझे नहीं मालूम 

ये कशमकश जो मन-ओ-तू के दरमियाँ है सो है 
मियान-ए-सूद-ओ-ज़ियाँ है मुझे नहीं मालूम 

ये कू-ए-ख़ाक है या फिर दयार-ए-ख़्वाब कोई
ज़मीन है कि ज़माँ है मुझे नहीं मालूम 

यहीं कहीं पे वो ख़ुश-रू था आज से पहले 
मगर वो आज कहाँ है मुझे नहीं मालूम

कि जैसे कुंज-ए-चमन से सबा निकलती है - अबरार अहमद

कि जैसे कुंज-ए-चमन से सबा निकलती है
तिरे लिए मेरे दिल से दुआ निकलती है 

क़दम बढ़ाऊँ तिरे रहगुज़ार है आख़िर
मगर ये राह कहीं और जा निकलती है 

यहीं कहीं पे रस्ता दवाम-ए-वस्ल का भी 
यहीं कहीं से ही राह-ए-फ़ना निकलती है 

ज़रूर होता है रंज-ए-सफ़र मसाफ़त में
कि जैसे चलने से आवाज़-ए-पा निकलती है 

यहाँ वहाँ किसी चेहरे में ढूँडते हैं तुम्हें
हमारे मिलने की सूरत भी क्या निकलती है 

हर एक आँख में होती है मुंतज़िर कोई आँख
हर एक दिल में कहीं कुछ जगह निकलती है

जो हो सके तो सुना ज़ख़्मा-ए-ख़मोशी को 
कि उस से खोए हुओं की सदा निकलती है 

हम अपनी राह पकड़ते हैं देखते भी नहीं 
कि किस डगर पे ये ख़ल्क-ए-ख़ुदा निकलती है

हमें ख़बर नहीं कुछ कौन है कहाँ कोई है - अबरार अहमद

हमें ख़बर नहीं कुछ कौन है कहाँ कोई है
हमेशा शाद हो आबाद हो जहाँ कोई है

जगह न छोड़े कि सैल-ए-बला है तेज़ बहुत
उड़ा पड़ा ही रहे अब जहाँ तहाँ कोई है

फ़िशार-ए-गिर्या किसी तौर बे-मक़ाम नहीं 
दयार-ए-ग़म है कहीं पर पस-ए-फ़ुगाँ कोई है

वो कोई ख़दशा है या वहम ख़्वाब है कि ख़याल
कि हो न हो मिरे दिल अपने दरमियाँ कोई है

कभी तो ऐसा है जैसे कहीं पे कुछ भी नहीं 
कभी ये लगता है जैसे यहाँ वहाँ कोई है

कभी कभी तो ये लगता है फ़र्द फ़र्द हैं हम
ये और बात हमारा भी कारवाँ कोई है

कहीं पहुँचना नहीं है उसे मगर फिर भी 
मिसाल-ए-बाद-ए-बहाराँ रवाँ-दवाँ कोई है

हुआ है अपने सफ़र से हज़र से बेगाना 
वहीं वहीं पे नहीं है जहाँ जहाँ कोई है

छलक जो उठती है ये आँख फ़र्त-ए-वस्ल में भी 
तो सरख़ुशी में अभी रंज-ए-राएगाँ कोई है

शिकस्त-ए-दिल है तो क्या राह-ए-इश्क़ तर्क न कर 
ये देख क्या कहीं परवर्दा-ए-ज़ियाँ कोई है

अब उस निगाह-ए-फ़ुसूँ-कार का क़ुसूर है क्या 
हमें दिखाओ अगर ज़ख्म का निशाँ कोई है

कहीं पे आज भी वो घर है हँसता बस्ता हुआ 
ये वहम सा है तिरे दिल को या गुमाँ कोई है

जवार क़र्या-ए-याराँ में जा निकलता हूँ
कि जैसे अब भी वहीं मेरा मेहरबाँ कोई है

गुरेज़ाँ था मगर ऐसा नहीं था - अबरार अहमद

गुरेज़ाँ था मगर ऐसा नहीं था
ये मेरा हम-सफ़र ऐसा नहीं था

यहाँ मेहमाँ भी आते थे हवा भी 
बहुत पहले ये घर ऐसा नहीं था 

यहाँ कुछ लोग थे उन की महक थी 
कभी ये रहगुज़र ऐसा नहीं था 

रहा करता था जब वो इस मकाँ में
तो रंग-ए-बाम-ओ-दर ऐसा नहीं था 

बस इक धुन थी निभा जाने की उस को 
गँवाने में ज़रर ऐसा नहीं था

मुझे तो ख़्वाब ही लगता है अब तक
वो क्या था वो अगर ऐसा नहीं था

पड़ेगी देखनी दीवार भी अब
कि ये सौदा-ए-सर ऐसा नहीं था 

ख़बर लूँ जा के इस ईसा-नफ़स की 
वो मुझ से बे-ख़बर ऐसा नहीं था 

न जाने क्या हुआ है कुछ दिनों से
कि मैं ऐ चश्म-ए-तर ऐसा नहीं था 

यूँ ही निमटा दिया है जिस को तू ने 
वो क़िस्सा मुख़्तसर ऐसा नहीं था

कोई सोचे न हमें कोई पुकारा न करे - अबरार अहमद

कोई सोचे न हमें कोई पुकारा न करे 
हम कहीं हैं कि नहीं हैं कोई चर्चा न करे 

रात अफ़्सूँ है कहीं का नहीं रहने देती
दिन को सोए न कोई रात को जागा न करे 

हम निकल आए हैं अब धूप में जलने के लिए
कोई बादल नहीं भेजे कोई साया न करे 

अन-गिनत आँखों में हम जलते रहे बुझते रहे 
अब भले ख़्वाब हमारा कोई देखा न करे 

हम ने इक शहर बसा रक्खा है दीवारों में
काम जो दिल ने किया चश्म-ए-तमाशा न करे 

कोई अब जा के ज़रा देखे तो उस मिट्टी को 
ऐसे सैराब किया है कोई दरिया न करे 

गो फ़रामोशी की तकमली हुआ चाहती है 
फिर भी कह दो कि हमें याद वो आया न करे 

हम उसे रंज-ए-तमन्ना से तो भर सकते हैं 
और ये दिल है कि अब कोई तक़ाज़ा न करे 

वार करना है अगर हम पे तो वो खुल कर आए
और भूले से भी ये काम वो तन्हा न करे

गाँव की हाट - अब्दुल मलिक खान

देखो लगी गाँव की हाट,
बड़े अनोखे इसके ठाट!

लड्डू, सेब, जलेबी, चक्की
सज धज कर बैठे थालों में
लाल गुलाबी पान बोलते-
हमको भी रख लो गालों में,
मूँछ मरोड़े घूमें जाट!

फरर-फर फर थान फट रहे
नमक-मिर्च के ढेर घट रहे,
कच्च-कच्च तरबूज कट रहे,
दुकानों पर लोग डट रहे,
बड़े मजे से खाते चाट!

गब्बा, सब्बा, रिद्दू, सिद्दू,
पहली बार हाट में आए,
लाए तेल चमेली का फिर-
हलवाई को वचन सुनाए,
चार किलो दो बरफी काट!

खरर-खरर सिल रहे घाघरे
चटपट चढ़ती जाए चूड़ी,
शाम हो गई, गाड़ी जोतो
रख दो अब बैलों पर जूड़ी,
पानी पीना गंगा घाट!
देखो बढ़ी गाँव की हाट!