शुक्रवार, 15 जनवरी 2016

बागी हैं हम इन्कलाब के गीत सुनाते जायेंगे - हरिओम पंवार

कोई रूप नहीं बदलेगा सत्ता के सिंहासन का
कोई अर्थ नहीं निकलेगा बार-बार निर्वाचन का
एक बड़ा ख़ूनी परिवर्तन होना बहुत जरुरी है
अब तो भूखे पेटों का बागी होना मजबूरी है

जागो कलम पुरोधा जागो मौसम का मजमून लिखो
चम्बल की बागी बंदूकों को ही अब कानून लिखो
हर मजहब के लम्बे-लम्बे खून सने नाखून लिखो
गलियाँ- गलियाँ बस्ती-बस्ती धुआं-गोलियां खून लिखो

हम वो कलम नहीं हैं जो बिक जाती हों दरबारों में
हम शब्दों की दीप- शिखा हैं अंधियारे चौबारों में
हम वाणी के राजदूत हैं सच पर मरने वाले हैं
डाकू को डाकू कहने की हिम्मत करने वाले हैं

जब तक भोली जनता के अधरों पर डर के ताले हैं
तब तक बनकर पांचजन्य हम हर दिन अलख जगायेंगे
बागी हैं हम इन्कलाब के गीत सुनाते जायेंगे

अगवानी हर परिवर्तन की भेंट चढ़ी बदनामी की
हमने बूढ़े जे.पी. के आँसू की भी नीलामी की
परिवर्तन की पतवारों से केवल एक निवेदन था
भूखी मानवता को रोटी देने का आवेदन था

अब भी रोज कहर के बादल फटते हैं झोपड़ियों पर
कोई संसद बहस नहीं करती भूखी अंतड़ियों पर
अब भी महलों के पहरे हैं पगडण्डी की साँसों पर
शोकसभाएं कहाँ हुई हैं मजदूरों की लाशों पर

निर्धनता का खेल देखिये कालाहांडी में जाकर
बेच रही है माँ बेटी को भूख प्यास से अकुलाकर
यहाँ बचपना और जवानी गम में रोज बुढ़ाती हैं
माँ , बेटे की लाशों पर आँचल का कफ़न उढाती है

जब तक बंद तिजोरी में मेहनतकश की आजादी है
तब तक हम हर सिंहासन को अपराधी बतलायेंगे
बाग़ी हैं हम इन्कलाब के गीत सुनाते जायेंगे

गाँधी के सपनों का सारा भारत टूटे लेता है
यहाँ चमन का माली खुद ही कलियाँ लुटे लेता है
निंदिया के आँचल में जब ये सारा जग सोता होगा
राजघाट में चुपके -चुपके तब गाँधी रोता होगा

हर चौराहे से आवाजें आती हैं संत्रासों की
पूरा देश नजर आता है मंडी ताज़ा लाशों की
सिंहासन को चला रहे हैं नैतिकता के नारों से
मदिरा की बदबू आती है संसद की दीवारों से

जन-गण-मन ये पूछ रहा है दिल्ली की दीवारों से
कब तक हम गोली खायें सरकारी पहरेदारों से
सिंहासन खुद ही शामिल है अब तो गुंडागर्दी में
संविधान के हत्यारे हैं अब सरकारी वर्दी में

जब तक लाशें पड़ी रहेंगी फुटपाथों की सर्दी में
तब तक हम अपनी कविता के अंगारे दहकायेंगे
बागी हैं हम इन्कलाब के गीत सुनाते जायेंगे

कोई भी निष्पक्ष नहीं है सब सत्ता के पण्डे हैं
आज पुलिस के हाथों में भी अत्याचारी डंडे हैं
संसद के सीने पर ख़ूनी दाग दिखाई देता है
पूरा भारत जलियांवाला बाग़ दिखाई देता है

इस आलम पर मौन लेखनी दिल को बहुत जलाती है
क्यों कवियों की खुद्दारी भी सत्ता से डर जाती है
उस कवि का मर जाना ही अच्छा है जो खुद्दार नहीं
देश जले कवि कुछ न बोले क्या वो कवि गद्दार नहीं

कलमकार का फर्ज रहा है अंधियारों से लड़ने का
राजभवन के राजमुकुट के आगे तनकर अड़ने का
लेकिन कलम लुटेरों को अब कहती है गाँधीवादी
और डाकुओं को सत्ता ने दी है ऐसी आजादी

राजमुकुट पहने बैठे हैं बर्बरता के अपराधी
हम ऐसे ताजों को अपनी ठोकर से ठुकरायेंगे
बागी हैं हम इन्कलाब के गीत सुनाते जायेंगे

बुद्धिजीवियों को ये भाषा अखबारी लग सकती है
मेरी शैली काव्य-शास्त्र की हत्यारी लग सकती है
पर जब संसद गूंगी शासन बहरा होने लगता है
और कलम की आजादी पर पहरा होने लगता है

तो अंतर आ ही जाता है शब्दों की परिभाषा में
कवि को चिल्लाना पड़ता है अंगारों की भाषा में
जब छालों की पीड़ा गाने की मजबूरी होती है
तो कविता में कला-व्यंजना ग़ैर जरुरी होती है

झोपड़ियों की चीखों का क्या कहीं आचरण होता है
मासूमो के आँसू का क्या कहीं व्याकरण होता है
वे उनके दिल के छालों की पीड़ा और बढ़ाते हैं
जो भूखे पेटों को भाषा का व्याकरण पढ़ाते हैं

जिन शब्दों की अय्याशी को पंडित गीत बताते हैं
हम ऐसे गीतों की भाषा कभी नहीं अपनाएंगे
बागी हैं हम इन्कलाब के गीत सुनाते जायेंगे

जब पूरा जीवन पीड़ा के दामन में ढल जाता है
तो सारा व्याकरण पेट की अगनी में जल जाता है
जिस दिन भूख बगावत वाली सीमा पर आ जाती है
उस दिन भूखी जनता सिंहासन को भी खा जाती है

मेरी पीढ़ी वालो जागो तरुणाई नीलाम न हो
इतिहासों के शिलालेख पर कल यौवन बदनाम न हो
अपने लोहू में नाखून डुबोने को तैयार रहो
अपने सीने पर कातिल लिखवाने को तैयार रहो

हम गाँधी की राहों से हटते हैं तो हट जाने दो
अब दो-चार भ्रष्ट नेता कटते हैं तो कट जाने दो
हम समझौतों की चादर को और नहीं अब ओढेंगे
जो माँ के आँचल को फाड़े हम वो बाजू तोड़ेंगे

अपने घर में कोई भी जयचंद नहीं अब छोड़ेंगे
हम गद्दारों को चुनकर दीवारों में चिन्वायेंगे
बागी हैं हम इन्कलाब के गीत सुनाते जायेंगे

आजादी के टूटे-फूटे सपने लेकर बैठा हूँ - हरिओम पंवार

मन तो मेरा भी करता है झूमूँ , नाचूँ, गाऊँ मैं
आजादी की स्वर्ण-जयंती वाले गीत सुनाऊँ मैं
लेकिन सरगम वाला वातावरण कहाँ से लाऊँ मैं
मेघ-मल्हारों वाला अन्तयकरण कहाँ से लाऊँ मैं
मैं दामन में दर्द तुम्हारे, अपने लेकर बैठा हूँ
आजादी के टूटे-फूटे सपने लेकर बैठा हूँ

घाव जिन्होंने भारत माता को गहरे दे रक्खे हैं
उन लोगों को जैड सुरक्षा के पहरे दे रक्खे हैं
जो भारत को बरबादी की हद तक लाने वाले हैं
वे ही स्वर्ण-जयंती का पैगाम सुनाने वाले हैं

आज़ादी लाने वालों का तिरस्कार तड़पाता है
बलिदानी-गाथा पर थूका, बार-बार तड़पाता है
क्रांतिकारियों की बलिवेदी जिससे गौरव पाती है
आज़ादी में उस शेखर को भी गाली दी जाती है
राजमहल के अन्दर ऐरे- गैरे तनकर बैठे हैं
बुद्धिमान सब गाँधी जी के बन्दर बनकर बैठे हैं

मै दिनकर की परम्परा का चारण हूँ
भूषण की शैली का नया उदहारण हूँ
इसीलिए मैं अभिनंदन के गीत नहीं गा सकता हूँ |
मैं पीड़ा की चीखों में संगीत नहीं ला सकता हूँ | |

इससे बढ़कर और शर्म की बात नहीं हो सकती थी
आजादी के परवानों पर घात नहीं हो सकती थी
कोई बलिदानी शेखर को आतंकी कह जाता है
पत्थर पर से नाम हटाकर कुर्सी पर रह जाता है
गाली की भी कोई सीमा है कोई मर्यादा है
ये घटना तो देश-द्रोह की परिभाषा से ज्यादा है

सारे वतन-पुरोधा चुप हैं कोई कहीं नहीं बोला
लेकिन कोई ये ना समझे कोई खून नहीं खौला
मेरी आँखों में पानी है सीने में चिंगारी है
राजनीति ने कुर्बानी के दिल पर ठोकर मारी है
सुनकर बलिदानी बेटों का धीरज डोल गया होगा
मंगल पांडे फिर शोणित की भाषा बोल गया होगा

सुनकर हिंद - महासागर की लहरें तड़प गई होंगी
शायद बिस्मिल की गजलों की बहरें तड़प गई होंगी
नीलगगन में कोई पुच्छल तारा टूट गया होगा
अशफाकउल्ला की आँखों में लावा फूट गया होगा
मातृभूमि पर मिटने वाला टोला भी रोया होगा
इन्कलाब का गीत बसंती चोला भी रोया होगा

चुपके-चुपके रोया होगा संगम-तीरथ का पानी
आँसू-आँसू रोयी होगी धरती की चूनर धानी
एक समंदर रोयी होगी भगतसिंह की कुर्बानी
क्या ये ही सुनने की खातिर फाँसी झूले सेनानी
जहाँ मरे आजाद पार्क के पत्ते खड़क गये होंगे
कहीं स्वर्ग में शेखर जी के बाजू फड़क गये होंगे
शायद पल दो पल को उनकी निद्रा भाग गयी होगी
फिर पिस्तौल उठा लेने की इच्छा जाग गयी होगी

केवल सिंहासन का भाट नहीं हूँ मैं
विरुदावलियाँ वाली हाट नहीं हूँ मैं
मैं सूरज का बेटा तम के गीत नहीं गा सकता हूँ |
मैं पीड़ा की चीखों में संगीत नहीं ला सकता हूँ | |

शेखर महायज्ञ का नायक गौरव भारत भू का है
जिसका भारत की जनता से रिश्ता आज लहू का है
जिसके जीवन के दर्शन ने हिम्मत को परिभाषा दी
जिसने पिस्टल की गोली से इन्कलाब को भाषा दी
जिसकी यशगाथा भारत के घर-घर में नभचुम्बी है
जिसकी बेहद अल्प आयु भी कई युगों से लम्बी है

जिसके कारण त्याग अलौकिक माता के आँगन में था
जो इकलौता बेटा होकर आजादी के रण में था
जिसको ख़ूनी मेहंदी से भी देह रचना आता था
आजादी का योद्धा केवल चना-चबेना खाता था
अब तो नेता सड़कें, पर्वत, शहरों को खा जाते हैं
पुल के शिलान्यास के बदले नहरों को खा जाते हैं

जब तक भारत की नदियों में कल-कल बहता पानी है
क्रांति ज्वाल के इतिहासों में शेखर अमर कहानी है
आजादी के कारण जो गोरों से बहुत लड़ी है जी
शेखर की पिस्तौल किसी तीरथ से बहुत बड़ी है जी
स्वर्ण जयंती वाला जो ये मंदिर खड़ा हुआ होगा
शेखर इसकी बुनियादों के नीचे गड़ा हुआ होगा

मैं साहित्य नहीं चोटों का चित्रण हूँ
आजादी के अवमूल्यन का वर्णन हूँ
मैं दर्पण हूँ दागी चेहरों को कैसे भा सकता हूँ
मैं पीड़ा की चीखों में संगीत नहीं ला सकता हूँ

जो भारत-माता की जय के नारे गाने वाले हैं
राष्ट्रवाद की गरिमा, गौरव-ज्ञान सिखाने वाले हैं
जो नैतिकता के अवमूल्यन का ग़म करते रहते हैं
देश-धर्म की रक्षा करने का दम भरते रहते हैं
जो छोटी-छोटी बातों पर संसद में अड़ जाते हैं
और रामजी के मंदिर पर सड़कों पर लड़ जाते हैं

स्वर्ण-जयंती रथ लेकर जो साठ दिनों तक घूमे थे
आजादी की यादों के पत्थर पूजे थे, चूमे थे
इस घटना पर चुप बैठे थे सब के मुहँ पर ताले थे
तब गठबंधन तोड़ा होता जो वे हिम्मत वाले थे
सच्चाई के संकल्पों की कलम सदा ही बोलेगी
समय-तुला तो वर्तमान के अपराधों को तोलेगी

वरना तुम साहस करके दो टूक डांट भी सकते थे
जो शहीदों पर थूक गई वो जीभ काट भी सकते थे
जलियांवाले बाग़ में जो निर्दोषों का हत्यारा था
ऊधमसिंह ने उस डायर को लन्दन जाकर मारा था
जो अतीत को तिरस्कार के चांटे देती आयी है
वर्तमान को जातिवाद के काँटे देती आयी है

जो भारत में पेरियार को पैगम्बर दर्शाती है
वातावरण विषैला करके मन ही मन हर्षाती है
जिसने चित्रकूट नगरी का नाम बदल कर डाल दिया
तुलसी की रामायण का सम्मान कुचल कर डाल दिया
जो कल तिलक, गोखले को गद्दार बताने वाली है
खुद को ही आजादी का हक़दार बताने वाली है

उससे गठबंधन जारी है ये कैसी लाचारी है
शायद कुर्सी और शहीदों में अब कुर्सी प्यारी है
जो सीने पर गोली खाने को आगे बढ़ जाते थे
भारत माता की जय कहकर फाँसी पर चढ़ जाते थे
जिन बेटों ने धरती माता पर कुर्बानी दे डाली
आजादी के हवन-कुंड के लिये जवानी दे डाली

दूर गगन के तारे उनके नाम दिखाई देते हैं
उनके स्मारक भी चारों धाम दिखाई देते हैं
वे देवों की लोकसभा के अंग बने बैठे होंगे
वे सतरंगे इंद्रधनुष के रंग बने बैठे होंगे
उन बेटों की याद भुलाने की नादानी करते हो
इंद्रधनुष के रंग चुराने की नादानी करते हो

जिनके कारण ये भारत आजाद दिखाई देता है
अमर तिरंगा उन बेटों की याद दिखाई देता है
उनका नाम जुबाँ पर लेकर पलकों को झपका लेना
उनकी यादों के पत्थर पर दो आँसू टपका देना

जो धरती में मस्तक बोकर चले गये
दाग़ गुलामी वाला धोकर चले गये
मैं उनकी पूजा की खातिर जीवन भर गा सकता हूँ |
मैं पीड़ा की चीखों में संगीत नहीं ला सकता हूँ | |