बुधवार, 13 जनवरी 2016

मैं तेरी रोशनाई होना चाहती हूँ - अलका सिन्हा

मैं लौट जाना चाहती हूँ
शब्दों की उन गलियों में
जहाँ से कविताएँ गुज़रती हैं
कहानियों की गलबहियाँ डाले ।

मेरी तमाम परेशानियों, नाकामियों के विष को
कंठस्थ कर लेने वाली नीलकंठ क़लम
मुझे रचने का सौंदर्य दे
कि मैं स्याही से लिख सकूँ
उजली दुनिया के सफ़ेद अक्षर ।

मुझे जज़्ब कर हे कलम !
मैं तेरी रोशनाई होना चाहती हूँ ।

मैं काग़ज़ की देह पर
गोदने की तरह उभर आना चाहती हूँ
और यह बता देना चाहती हूँ
कि काग़ज़ की संगमरमरी देह पर लिखी
शब्दों की इबारत
ताजमहल से बढ़कर ख़ूबसूरत होती है ।

मुझे गढ़ने की ताक़त दे हे ब्रह्म !
मैं संगतराश होना चाहती हूँ ।

अपने मान-अपमान से परे
अपने संघर्ष, अपनी पहचान से परे
नाभि से ब्रह्मांड तक गुँजरित
शब्द का नाद होना चाहती हूँ ।

मुझे स्वीकार कर हे कण्ठ
मैं गुँजरित राग होना चाहती हूँ ।

मधुमास - अलका सिन्हा

सुबह की चाय की तरह
दिन की शुरुआत से ही
होने लगती है तुम्हारी तलब
स्वर का आरोह
सात फेरों के मंत्र-सा
उचरने लगता है तुम्हारा नाम
ज़रूरी- गैरज़रूरी बातों में
शिकवे-शिकायतों में

ज़िन्दगी की छोटी-बड़ी कठिनाइयों में
उसी शिद्दत से तलाशती हूँ तुम्हें
तेज़ सिरदर्द में जिस तरह
यक-ब-यक खोलने लगती हैं उँगलियाँ
पर्स की पिछली जेब
और टटोलने लगती हैं
डिस्प्रिन की गोली ।

ठीक उसी वक़्त
बनफूल की हिदायती गंध के साथ
जब थपकने लगती हैं तुम्हारी उँगलियाँ
टनकते सिर पर
तब अनहद नाद की तरह
गूँजने लगती है ज़िन्दगी
और उम्र के इस दौर में पहुँचकर
समझने लगती हूँ मैं
मधुमास का असली अर्थ ।

अंतिम सांस तक - अलका सिन्हा

ग्राहक को कपड़े देने से ठीक पहले तक
कोई तुरपन, कोई बटन
टाँकता ही रहता है दर्ज़ी ।

परीक्षक के पर्चा खींचने से ठीक पहले तक
सही, ग़लत, कुछ न कुछ
लिखता ही रहता है परीक्षार्थी ।

अंतिम साँस टूटने तक
चूक-अचूक निशाना साधे
लड़ता ही रहता है फ़ौजी ।

कोई नहीं डालता हथियार
कोई नहीं छोड़ता आस
अंतिम साँस तक ।

कौन है जो - अलका सिन्हा

ये कौन है जो मेरे साथ-साथ चलता है
ये कौन है जो मेरी धड़कनों में बजता है
मुस्कराता है मेरी बेचैनियों पर
दिन-रात मुझसे लड़ता है ।

रोकता है कभी जुबाँ मेरी
कभी बात करने को मचलता है
टीसता है ज़ख़्म का दर्द बनकर
कभी दर्द पर मरहम रखता है।
झटक के हाथ सरक जाता है कभी
कभी उम्र-भर साथ निभाने की क़सम भरता है ।

भीड़ में हो जाता है गुमसुम
ख़ामोशियों में बजता है
ये कौन है जो मेरे चेहरे पर
नूर-सा चमकता है !

अंखियों में आ जा निंदिया - अलका सिन्हा

हो के चांदनी पे तू सवार
अंखियों में आ जा निंदिया...
खूब पढ़ेगी, खूब बढ़ेगी
जैसे कोई चढ़ती बेल,
हर मुश्किल से टकराएगी
जीतेगी जीवन का खेल।
तू पा लेगी वो ऊंचाई
हैरत से देखे दुनिया
अंखियों में आ जा निंदिया...
धीरे-धीरे झूला झूले
जा पहुंचेगी अम्बर पार,
उड़ने वाला घोड़ा लेक
आएगा एक राजकुमार।
डोली ले जाएगा एक दिन
सजकर बैठी है गुड़िया।
अंखियों में आ जा निंदिया...

विशेषाधिकार - महेश चंद्र द्विवेदी

जब हमने स्वतन्त्रता संग्राम
में भाग लिया था,
सबको समानाधिकार का
सपना जिया था
अपना स्वेद और रक्त
स्वाहा किया था
परतन्त्रता की बेड़ियों को 
काट दिया था ।

फिर समाप्त किए थे सभी विशेषाधिकार,
नहीं रखे थे राजे, महराजे और ज़मींदार. 
पर पता नहीं क्या था 
विधाता का विधान?
ऐसे हुआ व्याख्यायित
हमारा संविधान,
कि या तो किसी के
होते हैं विशेषाधिकार,
नहीं तो होता है वह आदमी 
साधारण, बेकार ।

जिसकी जब चली है- शब्द के अर्थ मोड़ दिये हैं,
असमर्थ को छोड़ सबने विशेषाधिकार ओढ़ लिये हैं । 

यहां के प्रशासक
अपने को शासक समझते हैं,
और शासक उन्हें
स्वयं के स्वार्थ-साधक समझते हैं ।
देश के सभी लाभदायक पद
इन प्रशासकों हेतु सुरक्षित हैं
हर शासकीय सुविधा लूटने का 
अधिकार इनको आरक्षित है ।
स्वच्छंद हैं और दूसरे विभागों पर कब्ज़ा जमाते हैं
शासकों को मुट्ठी में रख स्वहित के आदेश करवाते हैं । 

जनसेवकों को विधान भवन में
गरियाने और जुतियाने का अधिकार है,
गुंडों की सहायता से 
अपने मत डलवाने का अधिकार है,
स्वयं त्रसित कर
पुलिस सुरक्षा प्राप्त करने का अधिकार है,
अपने वेतन और भत्ता 
मनमाना बढ़ाने का अधिकार है ।
कुछ करोड़ रुपये में
बिक जाने का अधिकार है । 

साधारण जनता साधारण अधिकारों से
वंचित है,
जनसाधारण का जान-माल
चोरों-डाकुओं हेतु सुरक्षित है;
उनका मान-सम्मान
गुन्डों-बलात्कारियों की कृपा से अरक्षित है,
योग्य की नौकरी जाति के नाम पर
अयोग्य को आरक्षित है,
विशेषाधिकार-भोगी नागरिक विशेष हैं-
शेष जनता भुक्त है,
जनसाधारण तो बस
लतियाये जाने के अधिकार से युक्त है ।