गुरुवार, 17 दिसंबर 2015

है गली में आख़िरी घर लाम का - आदिल मंसूरी

है गली में आख़िरी घर लाम का
तीसवां आता है नंबर लाम का

डूबना निर्वाण की मंज़िल समझ
पानी के नीचे है गौहर लाम का

बंद दरवाज़ों पे सबके कान थे
शोर था कमरे के अंदर लाम का

देखते हैं हर्फ़ काग़ज़ फाड़ कर
मीम की गर्दन में ख़ंजर लाम का

भर गया है ख़ूने-फ़ासिद जिस्म में
आप भी नश्तर लगायें लाम का

चे चमक चेहरे पे बाक़ी है अभी
है मज़ा मुंह में मगर कुछ लाम का

काफ़ की कुर्सी पे काली चांदनी
गाफ़ में गिरता समंदर लाम का

शहर में अपने भी दुश्मन हैं बहुत
जेब में रखते हैं पत्थर लाम का

नून नुक़्ता नक़्द लो इनआम में
काट कर लाओ कोई सर लाम का

बदन पर नई फ़स्ल आने लगी - आदिल मंसूरी

बदन पर नई फ़स्ल आने लगी
हवा दिल में ख़्वाहिश जगाने लगी

कोई ख़ुदकुशी की तरफ़ चल दिया
उदासी की मेहनत ठिकाने लगी

जो चुपचाप रहती थी दीवार में
वो तस्वीर बातें बनाने लगी

ख़यालों के तरीक खंडरात में
ख़मोशी ग़ज़ल गुनगुनाने लगी

ज़रा देर बैठे थे तन्हाई में
तिरी याद आँखें दुखाने लगी

कल फूल के महकने की आवाज़ जब सुनी - आदिल मंसूरी

कल फूल के महकने की आवाज़ जब सुनी
परबत का सीना चीर के नदी उछल पड़ी

मुझ को अकेला छोड़ के तू तो चली गई
महसूस हो रही है मुझे अब मेरी कमी

कुर्सी, पलंग, मेज़, क़ल्म और चांदनी
तेरे बग़ैर रात हर एक शय उदास थी

सूरज के इन्तेक़ाम की ख़ूनी तरंग में
यह सुबह जाने कितने सितारों को खा गई

आती हैं उसको देखने मौजें कुशां कुशां
साहिल पे बाल खोले नहाती है चांदनी

दरया की तह में शीश नगर है बसा हुआ
रहती है इसमे एक धनक-रंग जल परी

बादल आए झूम के - आरसी प्रसाद सिंह

बादल आए झूम के।
आसमान में घूम के।
बिजली चमकी चम्म-चम।
पानी बरसा झम्म-झम।।
हवा चली है जोर से।
नाचे जन-मन मोर-से।
फिसला पाँव अरर-धम।
चारों खाने चित्त हम।।
मेघ गरजते घर्र-घों।
मेढक गाते टर्र-टों।
माँझी है उस पार रे।
नाव पड़ी मँझधार रे।।
शाला में अवकाश है।
सुंदर सावन मास है।
हाट-बाट सब बंद है।
अच्छा जी आनंद है।।
पंछी भीगे पंख ले।
ढूँढ़ रहे हैं घोंसले।
नद-नाले नाद पुकारते।।
हिरन चले मैदान से।
गीदड़ निकले माँद से।
गया सिपाही फौज में।
मछली रानी मौज में।।

जब पानी सर से बहता है - आरसी प्रसाद सिंह

तब कौन मौन हो रहता है? 
जब पानी सर से बहता है। 

चुप रहना नहीं सुहाता है, 
कुछ कहना ही पड़ जाता है। 
व्यंग्यों के चुभते बाणों को 
कब तक कोई भी सहता है? 
जब पानी सर से बहता है। 

अपना हम जिन्हें समझते हैं। 
जब वही मदांध उलझते हैं, 
फिर तो कहना पड़ जाता ही, 
जो बात नहीं यों कहता है।
जब पानी सर से बहता है। 

दुख कौन हमारा बाँटेगा 
हर कोई उल्टे डाँटेगा। 
अनचाहा संग निभाने में 
किसका न मनोरथ ढहता है? 
जब पानी सर से बहता है।

जीवन का झरना - आरसी प्रसाद सिंह

यह जीवन क्या है? निर्झर है, मस्ती ही इसका पानी है।
सुख-दुख के दोनों तीरों से चल रहा राह मनमानी है। 

कब फूटा गिरि के अंतर से? किस अंचल से उतरा नीचे? 
किस घाटी से बह कर आया समतल में अपने को खींचे? 

निर्झर में गति है, जीवन है, वह आगे बढ़ता जाता है! 
धुन एक सिर्फ़ है चलने की, अपनी मस्ती में गाता है। 

बाधा के रोड़ों से लड़ता, वन के पेड़ों से टकराता, 
बढ़ता चट्टानों पर चढ़ता, चलता यौवन से मदमाता। 

लहरें उठती हैं, गिरती हैं; नाविक तट पर पछताता है। 
तब यौवन बढ़ता है आगे, निर्झर बढ़ता ही जाता है। 

निर्झर कहता है, बढ़े चलो! देखो मत पीछे मुड़ कर! 
यौवन कहता है, बढ़े चलो! सोचो मत होगा क्या चल कर? 

चलना है, केवल चलना है ! जीवन चलता ही रहता है ! 
रुक जाना है मर जाना ही, निर्झर यह झड़ कर कहता है !

नए जीवन का गीत - आरसी प्रसाद सिंह

मैंने एक किरण माँगी थी, तूने तो दिनमान दे दिया।
चकाचौंध से भरी चमक का जादू तड़ित-समान दे दिया।
मेरे नयन सहेंगे कैसे यह अमिताभा, ऐसी ज्वाला?
मरुमाया की यह मरीचिका? तुहिनपर्व की यह वरमाला?
हुई यामिनी शेष न मधु की, तूने नया विहान दे दिया।
मैंने एक किरण माँगी थी, तूने तो दिनमान दे दिया।
अपने मन के दर्पण में मैं किस सुन्दर का रूप निहारूँ?
नव-नव गीतों की यह रचना किसके इंगित पर बलिहारूँ?
मानस का मोती लेगी वह कौन अगोचर राजमराली?
किस वनमाली के चरणों में अर्पित होगी पूजा-थाली?
एक पुष्प के लोभी मधुकर को वसन्त-उद्यान दे दिया।
मैंने एक किरण माँगी थी, तूने तो दिनमान दे दिया।
मलयानिल होता, तो मेरे प्राण सुमन-से फूले होते।
पल्लव-पल्लव की डालों पर हौले-हौले झूले होते।
एक चाँद होता, तो सारी रात चकोर बना रह जाता।
किन्तु, निबाहे कैसे कोई लाख-लाख तारों से नाता?
लघु प्रतिमा के एक पुजारी को अतुलित पाषाण दे दिया।
मैंने एक किरण माँगी थी, तूने तो दिनमान दे दिया।
ओ अनन्त करुणा के सागर, ओ निर्बन्ध मुक्ति के दानी।
तेरी अपराजिता शक्ति का हो न सकूँगा मैं अभिमानी।
कैसे घट में सिन्धु समाए? कैसे रज से मिले धराधर।
एक बूँद के प्यासे चातक के अधरों पर उमड़ा सागर।
देवालय की ज्योति बनाकर दीपक को निर्वाण दे दिया।
मैंने एक किरण माँगी थी, तूने तो दिनमान दे दिया।
मुँहमाँगा वर देकर तूने मेरा मंगल चाहा होगा।
शायद मैंने भी याचक बन अपना भाग्य सराहा होगा।
इसीलिए, तूने गुलाब को क्या काँटों की सेज सुलाया?
रत्नाकर के अन्तस्तल में दारुण बड़वानल सुलगाया?
अपनी अन्ध वन्दना को क्यों मेरा मर्मस्थान दे दिया?
मैंने एक किरण माँगी थी, तूने तो दिनमान दे दिया।

चाँद को देखो - आरसी प्रसाद सिंह

चाँद को देखो चकोरी के नयन से
माप चाहे जो धरा की हो गगन से।

  मेघ के हर ताल पर
  नव नृत्य करता
  राग जो मल्हार
  अम्बर में उमड़ता

आ रहा इंगित मयूरी के चरण से
चाँद को देखो चकोरी के नयन से।

  दाह कितनी
  दीप के वरदान में है
  आह कितनी
  प्रेम के अभिमान में है

पूछ लो सुकुमार शलभों की जलन से
चाँद को देखो चकोरी के नयन से।

  लाभ अपना
  वासना पहचानती है
  किन्तु मिटना
  प्रीति केवल जानती है

माँग ला रे अमृत जीवन का मरण से
चाँद को देखो चकोरी के नयन से
माप चाहे जो धरा की हो गगन से।