यह हिन्दी साहित्य के प्रसिद्ध कवियों की कविताओं का संग्रह है | सारी कृतियां संबंधित लेखकों या प्रकाशकों के कॉपीराइट रहे हैं |
बुधवार, 16 दिसंबर 2015
जाड़े की धूप - अरविन्द अवस्थी
कई दिन तक घिरे घने कुहासे के बाद
खिली धूप
जाड़े की ।
देखकर
खिल उठा मन जैसे
छठें वेतन
आयोग के अनुसार
मिली हो
तनख़्वाह की पहली किस्त ।
जैसे
साठ रुपये किलो से
बारह पर आ
गया हो, प्याज का
भाव ।
धूप से मैं
और धूप मुझसे
दोनों एक
दूसरे से लिपट गए
जैसे
स्कूल से पढ़कर लौटे, नर्सरी के बच्चे को
लिपटा
लेती है माँ ।
धूप सोहा
रही थी जैसे ,जली
चमड़ी पर
बर्फ़ का
टुकड़ा ।
धूप खिलने
की ख़बर, आतंकी
अफ़ज़ल कसाब की
गिरफ़्तारी
के समाचार-सी फैल गई
गाँव-गाँव, शहर-शहर ।
लोग
बाँचने लगे, उलट-पुलट
कर, एक-एक पृष्ठ ।
वसंत नहीं लौटा - अरविन्द अवस्थी
वसंत आया, गूँजने लगे वासंती स्वर
महकने लगीं, वासंती गलियाँ
फूट-फूट पड़ीं पौधों में कोपलें ।
साफ़-साफ़ दिखने लगा
आसमान का नीला चेहरा ।
लौट आए बच्चों के साथ
पंख फैलाए प्रवासी पक्षी
किंतु नहीं लौटा मेरा प्यारा ‘वसंत’
देश की सरहद से ।
बम के धमाकों ने बिखेर दिया
मेरे माथे का सिंदूर ।
सोख लिया आशाओं का पानी ।
लील ली चूड़ियों की खनक
और लिख दी जीवन के पन्नों पर
पतझड़ की कहानी आँसुओं से ।
महकने लगीं, वासंती गलियाँ
फूट-फूट पड़ीं पौधों में कोपलें ।
साफ़-साफ़ दिखने लगा
आसमान का नीला चेहरा ।
लौट आए बच्चों के साथ
पंख फैलाए प्रवासी पक्षी
किंतु नहीं लौटा मेरा प्यारा ‘वसंत’
देश की सरहद से ।
बम के धमाकों ने बिखेर दिया
मेरे माथे का सिंदूर ।
सोख लिया आशाओं का पानी ।
लील ली चूड़ियों की खनक
और लिख दी जीवन के पन्नों पर
पतझड़ की कहानी आँसुओं से ।
आदमी - अरविन्द अवस्थी
न थकीं सदियाँ, न आदमी
चलते-चलते
एक दूसरे के साथ
पेड़ से आसमान तक
पत्तों से रेशमी पोशाक तक की
यात्रा में
क़दम से क़दम मिलाती सभ्यता
साहित्य, संगीत और कला के
विकास का बढ़ता क्रम
तक्षशिला और नालन्दा की
अनुपम ज्ञान परम्परा
खजुराहों का शिल्प
और कोणार्क का कौतुक
विदेशियों को बुलाता
ताजमहल
इन सबके पीछे आदमी ही तो है
पर समझ नहीं आता
आदमी है कहाँ ?
हाथ, पैर, मुँह, नाक
कान, ऑंख ये तो
आदमी नहीं हैं
फिर क्या सिर या पेट आदमी है ?
इतना बड़ा समाज बनाने वाला
आदमी आज समाज से
स्वयं गायब है
ढूँढ रहा हूँ
एक अदद आदमी
वह कहाँ मिलेगा ?
स्कूलों में, फ़ैक्टरियों में
खेतों में या बाज़ारों में,
नहीं,
वहाँ तो विद्यार्थी, अधिकारी
कर्मचारी मिलते हैं
सामान मिलता है
या फिर उगती हैं फ़सलें,
आदमी पैदा नहीं होता
आदमी बनता है
संवेदना की भट्ठी में
सिझता है
अंदर ही अंदर पकता है
तब आदमी बनता है
ढूँढ रहा हूँ ऐसा आदमी
जो आदमी के लिए
जीता है
चलते-चलते
एक दूसरे के साथ
पेड़ से आसमान तक
पत्तों से रेशमी पोशाक तक की
यात्रा में
क़दम से क़दम मिलाती सभ्यता
साहित्य, संगीत और कला के
विकास का बढ़ता क्रम
तक्षशिला और नालन्दा की
अनुपम ज्ञान परम्परा
खजुराहों का शिल्प
और कोणार्क का कौतुक
विदेशियों को बुलाता
ताजमहल
इन सबके पीछे आदमी ही तो है
पर समझ नहीं आता
आदमी है कहाँ ?
हाथ, पैर, मुँह, नाक
कान, ऑंख ये तो
आदमी नहीं हैं
फिर क्या सिर या पेट आदमी है ?
इतना बड़ा समाज बनाने वाला
आदमी आज समाज से
स्वयं गायब है
ढूँढ रहा हूँ
एक अदद आदमी
वह कहाँ मिलेगा ?
स्कूलों में, फ़ैक्टरियों में
खेतों में या बाज़ारों में,
नहीं,
वहाँ तो विद्यार्थी, अधिकारी
कर्मचारी मिलते हैं
सामान मिलता है
या फिर उगती हैं फ़सलें,
आदमी पैदा नहीं होता
आदमी बनता है
संवेदना की भट्ठी में
सिझता है
अंदर ही अंदर पकता है
तब आदमी बनता है
ढूँढ रहा हूँ ऐसा आदमी
जो आदमी के लिए
जीता है
एक बच्चा अनेक सवाल - अरविन्द अवस्थी
अख़बार की हेडिंग की तरह
रोज़-रोज़ देखता हूँ
देश के इस नन्हे भविष्य को
जो बहुत कुछ जानता है
लेकिन नहीं जानता
तिजोरी की चाभी का नम्बर,
स्विस बैंक के एकाउंट
और वर्दी पर लगे
स्टारों की संख्या से भी
दूर-दूर तक कोई नाता
नहीं है इसका
सोचता हूँ
चीरकर सौदागरों की भीड़
क्या यह रच पाएगा
कछुआ और खरगोश की कहानी !
क्या देख सकेगा अपनी मंज़िल
बिना कोटा की पावरफुल ऐनक लगाए !
कब हरियाएगा इसका कामना-तरु
कब लटकेंगे फलों के गुच्छे
स्वर्ण-पुत्रों की होड़ में
कुछ सिक्कों के सहारे
कैसे पहना सकेगा
अपने सपनों को
ओहदों का परिधान
जाड़े की लम्बी रात-सी बाधाएँ
कहीं लील न लें
इसका उजला सपना
निराश मत होना धरती पुत्र !
क्योंकि सुरसा के मुँह में गए बिना
कोई हनुमान
सागर भला कैसे पार करेगा ?
रोज़-रोज़ देखता हूँ
देश के इस नन्हे भविष्य को
जो बहुत कुछ जानता है
लेकिन नहीं जानता
तिजोरी की चाभी का नम्बर,
स्विस बैंक के एकाउंट
और वर्दी पर लगे
स्टारों की संख्या से भी
दूर-दूर तक कोई नाता
नहीं है इसका
सोचता हूँ
चीरकर सौदागरों की भीड़
क्या यह रच पाएगा
कछुआ और खरगोश की कहानी !
क्या देख सकेगा अपनी मंज़िल
बिना कोटा की पावरफुल ऐनक लगाए !
कब हरियाएगा इसका कामना-तरु
कब लटकेंगे फलों के गुच्छे
स्वर्ण-पुत्रों की होड़ में
कुछ सिक्कों के सहारे
कैसे पहना सकेगा
अपने सपनों को
ओहदों का परिधान
जाड़े की लम्बी रात-सी बाधाएँ
कहीं लील न लें
इसका उजला सपना
निराश मत होना धरती पुत्र !
क्योंकि सुरसा के मुँह में गए बिना
कोई हनुमान
सागर भला कैसे पार करेगा ?
कविता में - अमिता प्रजापति
कितना कुछ कह लेते हैं
कविता में
सोच लेते हैं कितना कुछ
प्रतीकों के गुलदस्तों में
सजा लेते हैं विचारों के फूल
कविता को बांध कर स्केटर्स की तरह
बह लेते हैं हम अपने समय से आगे
वे जो रह गए हैं समय से पीछे
उनका हाथ थाम
साथ हो लेती है कविता
ज़िन्दगी जब बिखरती है माला के दानों-सी फ़र्श पर
कविता हो जाती है काग़ज़ का टुकड़ा
सम्भाल लेती है बिखरे दानों को
दुख और उदासी को हटा देती है
नींद की तरह
ताज़े और ठंडे पानी की तह
हो जाती है कविता
कविता में
सोच लेते हैं कितना कुछ
प्रतीकों के गुलदस्तों में
सजा लेते हैं विचारों के फूल
कविता को बांध कर स्केटर्स की तरह
बह लेते हैं हम अपने समय से आगे
वे जो रह गए हैं समय से पीछे
उनका हाथ थाम
साथ हो लेती है कविता
ज़िन्दगी जब बिखरती है माला के दानों-सी फ़र्श पर
कविता हो जाती है काग़ज़ का टुकड़ा
सम्भाल लेती है बिखरे दानों को
दुख और उदासी को हटा देती है
नींद की तरह
ताज़े और ठंडे पानी की तह
हो जाती है कविता
नीलू मत हो उदास - अमिता प्रजापति
नीलू मत हो उदास कि हमारी पुरखिन मांओ ने
नहीं सिखाया उन्हें
कैसे हुआ जाता है एक खिला हुआ पुरुष
हमारी माएं ज़्यादा मगन रहीं
स्त्रियां रचने में शायद
जो रची गईं तो ऐसी कि
समय-दर-समय खुलती चली गई
बिखर गई सुगन्ध की तरह
पुरुष तो जैसे बंद हो चला
कस गया अपने में इतना कि
ज़रा बजाने पर ही बज उठे टक-टक
गिरा ज़रा तो लुढ़कता चला जाए दूर तक
और बांध लें कहीं लटका रहे बोझ-सा
नीलू मत हो निराश कि चूक हुई है
हमारी पुरखिन मांओं से
नहीं बना पाईं वे ऐसे पुरुष
कि घुलें...बहें
हवाओं में हल्के होकर...
वे हमारे पुरखे पिता
जो खुद कसे हुए घोड़ों की तरह अपनी टापें
हमारी छाती पर रखा करते थे
भाई पिता पति और प्रेमी होकर
ओ नीलू मत हो निराश कि
हम बना लेंगे ऐसे पुरुष
जो घर से आकाश तक बहें
हवाओं की तरह...
आने वाली स्त्रियों के लिए गढ़ने होंगे नए पुरुष
अपने गर्भ घरों में
जो घरों में उठने वाली खुशबुओं को दूर तक महका सकें!
नहीं सिखाया उन्हें
कैसे हुआ जाता है एक खिला हुआ पुरुष
हमारी माएं ज़्यादा मगन रहीं
स्त्रियां रचने में शायद
जो रची गईं तो ऐसी कि
समय-दर-समय खुलती चली गई
बिखर गई सुगन्ध की तरह
पुरुष तो जैसे बंद हो चला
कस गया अपने में इतना कि
ज़रा बजाने पर ही बज उठे टक-टक
गिरा ज़रा तो लुढ़कता चला जाए दूर तक
और बांध लें कहीं लटका रहे बोझ-सा
नीलू मत हो निराश कि चूक हुई है
हमारी पुरखिन मांओं से
नहीं बना पाईं वे ऐसे पुरुष
कि घुलें...बहें
हवाओं में हल्के होकर...
वे हमारे पुरखे पिता
जो खुद कसे हुए घोड़ों की तरह अपनी टापें
हमारी छाती पर रखा करते थे
भाई पिता पति और प्रेमी होकर
ओ नीलू मत हो निराश कि
हम बना लेंगे ऐसे पुरुष
जो घर से आकाश तक बहें
हवाओं की तरह...
आने वाली स्त्रियों के लिए गढ़ने होंगे नए पुरुष
अपने गर्भ घरों में
जो घरों में उठने वाली खुशबुओं को दूर तक महका सकें!
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