मंगलवार, 8 दिसंबर 2015

जला के तीलियाँ अब दोस्त मिलने आया है - ज्ञान प्रकाश विवेक

जला के तीलियाँ अब दोस्त मिलने आया है 
कि मैने आज इक क़ाग़ज़ का घर बनाया है 
                                
पता नहीं मुझे दावत में क्या खिलाए वो 
जो अपने वास्ते पत्थर उबाल लाया है

भटकने के लिए दुनिया में रहनुमाओं ने
ज़मीं पे एक फ़िलिस्तीन भी बनाया है

पता लगाओ कि इन्सान है या वो रोबोट
जो तितलियों की चटाई बनाने आया है

बड़ों ने यत्न किए और थक गये लेकिन
पतंग तार से बच्चा उतार लाया है

खड़ा हुआ था वहीं आँसुओं के जलसे में
कि जिसने अपना लतीफ़ों से घर बनाया है|

जब लगी भूख तो पाषाण चबाए उसने - ज्ञान प्रकाश विवेक

जब लगी भूख तो पाषाण चबाए उसने
अपने बच्चों के लिए पैसे बचाए उसने

आसमाँ धूप हवा छाँव परिंदे जुगनू
अपने घर में कई मेहमान बुलाए उसने

तू शिकारी की ज़रा देख दयानतदारी
परकटे जितने परिंदे थे उड़ाए उसने

वक़्त नादान -से बालक की तरह था यारो
मेरी गुल्लक से कई सिक्के चुराए उसने

बैठने के लिए मैं ढूँढ रहा था कुर्सी
फ़र्श पर धूप के अख़बार बिछाए उसने

प्यास के मारे हिरन को जो पिलाया पानी
एक ही पल में कई जश्न मनाए उसने

कहकशाँ उसकी चुरा कर मैं कहाँ पर रखता
मुझपे आरोप निराधार लगाए उसने

वक़्त के साथ ढल गया हूँ मैं - ज्ञान प्रकाश विवेक

वक़्त के साथ ढल गया हूँ मैं
बस ज़रा-सा बदल गया हूँ मैं

लौट आना भी अब नहीं मुमकिन
इतना ऊँचा उछल गया हूँ मैं

रेलगाड़ी रुकेगी दूर कहीं
थोड़ा पहले सँभल गया हूँ मैं

आपके झूठे आश्वासन थे 
मुझको देखो बहल गया हूँ मैं

मुझको लश्कर समझ रहे हैं आप
जोगियों-सा निकल गया हूँ मैं 

मैं तो चाबी का इक खिलौना था
ये ग़नीमत कि चल गया हूँ मैं

हँस रही हैं ऊँचाइयाँ मेरी
सीढ़ियों से फिसल गया हूँ मैं|

मैं इक चराग हूँ जलना है ज़िन्दगी मेरी - ज्ञान प्रकाश विवेक

मैं इक चराग हूँ जलना है ज़िन्दगी मेरी
छुपी हुई है इसी दर्द में ख़ुशी मेरी

खड़ा हूँ मश्क लिए मैं उदास सहरा में
किसी की प्यास बुझाना है बंदगी मेरी

मैं एक ऐसा गडरिया हूँ, बकरियाँ सब हैं
चुरा के ले गया इक चोर बाँसुरी मेरी

मैं नंगे पाँव हूँ जूते ख़रीद सकता नहीं
पर इसको लोग समझते हैं सादगी मेरी

खड़ा हूँ क़ाग़ज़ी कपड़े पहन के बारिश में
ये हौसला है मेरा या है बेबसी मेरी

महानगर में अकेला तू जा रहा है तो जा
खलेगी एक दिन बेहद तुझे कमी मेरी.

विज्ञान-शिक्षक से छोटी लड़की का एक सवाल - ज्ञानेन्द्रपति


एक बहुत छोटा-सा सवाल पूछा था

विज्ञान-कक्षा की सबसे छोटी लड़की ने
पूछा था कि सारे आदमी जब
एक से ही आदमी हैं
जल और स्थल पर एक साथ चलकर ही
बने हैं इतने आदमी
तो एक आदमी अमीर
एक आदमी ग़रीब क्यों है
एक आदमी तो आदमी है
दूसरा जैसे आदमी ही नहीं है...

सारी कक्षा भौंचक रह गयी थी
खटाखट उड़ने लगे थे फ्यूज़
किवाड़ों में का लोहा बजने लगा था
विज्ञान-शिक्षक की आत्मा हाथ में लपलपाती छड़ी की तरह
दुबली हो गयी थी
उनका मुँह खुल गया था गुस्से में दुःख में
एक पल को उन्होंने अपने भीतर शून्य देखा था
उम्र बीत गयी आदमी की हड्डी-हड्डी को नस-नस को
उनके नाम से जानते
आदमी के दिल के दिमाग़ के जोड़-जोड़ को
भरी कक्षा में टुकड़े-टुकड़े खोलते
आदमी के रोम-रोम में झाँकते
उम्र बीत गयी इस सवाल को कण्ठ में तेज़ प्यास की तरह
अचानक महसूस करते
पर दबा जाते घुड़क कर घुटक लेते
किसी आदमी से अकेले में भी कभी पूछ नहीं पाते

 

माचिस की बाबत - ज्ञानेन्द्रपति

बाज़ार से 
माचिसें गायब हैं
दस दुकान ढूंढे नहीं मिल रही है एक माचिस
बड़ी आसानी से पायी जाती थी जो हर कहीं
परचून की पसरी दुकानों पर ही नहीं
पान के खड़े पगुराते खोखों पर भी

राह चलते
चाह बलते
मिल जाने वाली माचिस, मुस्तैद
एक मुँहलगी बीड़ी सुलगाने को
एहतियात से!

क्या हमने सारी माचिसें खपा डालीं
जला डालीं बुझा डालीं
गुजरात में, पिछले दिनों
आदमियों को ज़िन्दा जलाने में
आदमीयत का मुर्दा जलाने में?

जब माचिस मिलने भी लगेगी इफरात, जल्द ही
अगरबत्तियां जलाते
क्या हमारी तीलियों की लौ काँपेगी नहीं
ताप से अधिक पश्चात्ताप से?!

प्यासा कुआँ - ज्ञानेन्द्रपति

प्यास बुझाता रहा था जाने कब से
बरसों बरस से वह कुआँ
लेकिन प्यास उसने तब जानी थी जब
यकायक बंद हो गया जल-सतह तक
बाल्टियों का उतरना
बाल्टियाँ- जो अपना लाया आकाश डुबो कर
बदले में उतना जल लेती थीं

प्यास बुझाने को प्यासा
प्रतीक्षा करता रहा था कुआँ, महीनों
तब कभी एक
प्लास्टिक की खाली बोतल
आ कर गिरी थी
पानी पी कर अन्यमनस्क फेंकी गई एक प्लास्टिक-बोतल
अब तक हैण्डपम्प की उसे चिढ़ाती आवाज़ भी नहीं सुन पड़ती

एक गहरा-सा कूड़ादान है वह अब
उसकी प्यास सिसकी की तरह सुनी जा सकती है अब भी
अगर तुम दो पल उस औचक बुढ़ाए कुएँ के पास खड़े होओ चुप।

सूर्यास्त की आभा भी जब अस्त हो रही होती है - ज्ञानेन्द्रपति

सूर्यास्त की आभा भी जब अस्त हो रही होती है
नदी का जल-पृष्ठ निरंग हो धीरे-धीरे सँवलाने लगता है जब
देखता हूँ, नदी के पारतट के ऊपर के आकाश में
एक झुण्ड है पक्षियों का
धुएँ की लकीर-सा वह
एक नीड़मुखी खगयूथ है
वह जो गति-आकृति उर्मिल बदलती प्रतिपल
हो रही ओझल
सूर्यास्त की विपरीत दिशा में
नभोधूम का विरल प्रवाह वह अविरल
क्षितिज का वही तो सांध्य-रोमांच है
दिनान्त का अँकता सीमन्त वह जहाँ से
रात का सपना शुरू होता है
कौन हैं वे पक्षी
दूर इस अवार-तट से
पहचाने नहीं जाते
लेकिन जानता हूँ
शहर की रिहायशी कालोनियों में
बहुमंज़िली इमारतों की बाल्कनियों में
ग्रिलों-खिड़कियों की सलाखों के सँकरे आकाश-द्वारों से
घुसकर घोंसला बनाने वाली गौरैयाएँ नहीं हैं वे
जो सही-साँझ लौट आती हैं बसेरे में
ये वे पक्षी हैं जो
नगर और निर्जन के सीमान्त-वृक्ष पर गझिन बसते हैं
नगर और निर्जन के दूसरे सीमान्त तक जाते हैं
दिनारम्भ में बड़ी भोर
खींचते रात के उजलाते नभ-पट पर
प्रात की रेखा ।

आवो, चलें हम - ज्ञानेन्द्रपति

आवो, चलें हम
साथ दो कदम
हमकदम हों
दो ही कदम चाहे
दुनिया की कदमताल से छिटक
हाथ कहां लगते हैं मित्रों के हाथ
घड़ी-दो घड़ी को
घड़ीदार हाथ-जिनकी कलाई की नाड़ी से तेज
धड़कती है घड़ी
वक्त के जख्म़ से लहू रिसता ही रहता है लगातार
कहां चलते हैं हम कदम-दो कदम
उंगलियों में फंसा उंगलियां
उंगलियों में फंसी है डोर
सूत्रधार की नहीं
कठपुतलियों की
हथेलियों में फंसी है
एक बेलन
जिन्दगी को लोई की तरह बेलकर
रोटी बनाती
किनकी अबुझ क्षुधाएं
उदरम्भरि हमारी जिन्दगियां
भसम कर रही हैं
बेमकसद बनाए दे रही हैं
खास मकसद से
आवो, विचारें हम
माथ से जोड़कर माथ
दो कदम हमकदम हों हाथ से जोड़े हाथ

ओम जय जगदीश हरे - श्रद्धा राम फिल्‍लौरी


ॐ जय जगदीश हरे, स्वामी जय जगदीश हरे
भक्त जनों के संकट, दास जनों के संकट
क्षण में दूर करे, ॐ जय जगदीश हरे..

जो ध्यावे फल पावे दुख बिनसे मन का, स्वामी दुख बिनसे मन का
सुख सम्मति घर आवे, सुख सम्मति घर आवे, कष्ट मिटे तन का
ॐ जय जगदीश हरे..

मात-पिता तुम मेरे शरण गहूं मैं किसकी, स्वामी शरण गहूं मैं किसकी
तुम बिन और न दूजा, प्रभु बिन और न दूजा, आस करूं मैं जिसकी
ॐ जय जगदीश हरे..

तुम पूरण परमात्मा तुम अंतरयामी, स्वामी तुम अंतरयामी
पारब्रह्म परमेश्वर, पारब्रह्म परमेश्वर, तुम सब के स्वामी
ॐ जय जगदीश हरे..

तुम करुणा के सागर तुम पालनकर्ता, स्वामी तुम पालनकर्ता
मैं मूरख खल कामी, मैं सेवक तुम स्वामी, कृपा करो भर्ता
ॐ जय जगदीश हरे

तुम हो एक अगोचर सबके प्राणपति, स्वामी सबके प्राणपति
किस विध मिलूं दयामय, किस विध मिलूं दयामय, तुमको मैं कुमति
ॐ जय जगदीश हरे..

दीनबंधु दुखहर्ता ठाकुर तुम मेरे, स्वामी तुम मेरे
अपने हाथ उठाओ, अपनी शरण लगाओ, द्वार पड़ा तेरे
ॐ जय जगदीश हरे..

विषय विकार मिटाओ पाप हरो देवा, स्वामी पाप हरो देवा
श्रद्धा भक्ति बढ़ाओ, श्रद्धा भक्ति बढ़ाओ, संतन की सेवा
ॐ जय जगदीश हरे..