मंगलवार, 1 दिसंबर 2015

इतिहास की कालहीन कसौटी - गिरिजाकुमार माथुर

बन्‍द अगर होगा मन
आग बन जाएगा
रोका हुआ हर शब्‍द
चिराग बन जाएगा ।

सत्‍ता के मन में जब-जब पाप भर जाएगा
झूठ और सच का सब अन्‍तर मिट जाएगा
न्‍याय असहाय, ज़ोर-जब्र खिलखिलाएगा
जब प्रचार ही लोक-मंगल कहलाएगा

तब हर अपमान
क्रान्ति-राग बन जाएगा
बन्‍द अगर होगा मन
आग बन जाएगा

घर की ही दीवार जब जलाने लगे घर-द्वार
रोशनी पलट जाए बन जाए अन्‍धकार
पर्दे में भरोसे के जब पलने लगे अनाचार
व्‍यक्ति मान बैठे जब अपने को अवतार

फिर होगा मन्थन
सिन्‍धु झाग बन जाएगा
बन्‍द अगर होगा मन
आग बन जाएगा

घटना हो चाहे नई बात यह पुरानी है
भय पर उठाया भवन रेत की कहानी है
सहमति नहीं है मौन, विरोध की निशानी है
सन्‍नाटा बहुत बड़े अंधड़ की वाणी है
टूटा विश्‍वास अगर
गाज बन जाएगा
बन्‍द अगर होगा मन
आग बन जाएगा ।

कौन थकान हरे - गिरिजाकुमार माथुर

कौन थकान हरे जीवन की ।
     बीत गया संगीत प्‍यार का,
     रूठ गई कविता भी मन की ।

वंशी में अब नींद भरी है,
स्‍वर पर पीत साँझ उतरी है
बुझती जाती गूँज आखरी —
इस उदास वन-पथ के ऊपर
पतझर की छाया गहरी है,

     अब सपनों में शेष रह गईं,
     सुधियाँ उस चंदन के वन की ।

रात हुई पंछी घर आए,
पथ के सारे स्‍वर सकुचाए,
म्‍लान दिया बत्‍ती की बेला —
थके प्रवासी की आँखों में
आँसू आ-आ कर कुम्‍हलाए,

     कहीं बहुत ही दूर उनींदी
     झाँझ बज रही है पूजन की
     कौन थकान हरे जीवन की ।

विदा समय क्‍यों भरे नयन हैं - गिरिजाकुमार माथुर

विदा समय क्‍यों भरे नयन हैं

अब न उदास करो मुख अपना
बार-बार फिर कब है मिलना
जिस सपने को सच समझा था —
वह सब आज हो रहा सपना
याद भुलाना होंगी सारी
भूले-भटके याद न करना
चलते समय उमड़ आए इन पलकों में जलते सावन हैं।

कैसे पी कर खाली होगी
सदा भरी आँसू की प्‍याली
भरी हुई लौटी पूजा बिन
वह सूनी की सूनी थाली
इन खोई-खोई आँखों में —
जीवन ही खो गया सदा को
कैसे अलग अलग कर देंगे
मिला-मिला आँखों की लाली
छुट पाएँगे अब कैसे, जो अब तक छुट न सके बन्‍धन हैं।

जाने कितना अभी और
सपना बन जाने को है जीवन
जाने कितनी न्यौछावर को
कहना होगा अभी धूल कन
अभी और देनी हैं कितनी —
अपनी निधियाँ और किसी को
पर न कभी फिर से पाऊँगा
उनकी विदा समय की चितवन
मेरे गीत किन्हीं गालों पर रुके हुए दो आँसू कन हैं
विदा समय क्यों भरे नयन हैं

मेरे सपने बहुत नहीं हैं - गिरिजाकुमार माथुर

मेरे सपने बहुत नहीं हैं —
छोटी-सी अपनी दुनिया हो,
दो उजले-उजले से कमरे
जगने को-सोने को,
मोती-सी हों चुनी किताबें
शीतल जल से भरे सुनहले प्‍यालों जैसी
ठण्‍डी खिड़की से बाहर धीरे हँसती हो
तितली-सी रंगीन बगीची;
छोटा लॉन स्‍वीट-पी जैसा,
मौलसिरी की बिखरी छितरी छाँहों डूबा —
हम हों, वे हों
काव्‍य और संगीत-सिन्‍धु में डूबे-डूबे
प्‍यार भरे पंछी से बैठे
नयनों से रस-नयन मिलाए,
हिल-मिलकर करते हों
मीठी-मीठी बातें
उनकी लटें हमारे कन्‍धों पर मुख पर
उड़-उड़ जाती हों,
सुशर्म बोझ से दबे हुए झोंकों से हिल कर
अब न बहुत हैं सपने मेरे
मैं इस मंज़िल पर आ कर
सब कुछ जीवन में भर पाया ।

मैं कैसे आनन्‍द मनाऊँ - गिरिजाकुमार माथुर

मैं कैसे आनन्‍द मनाऊँ
तुमने कहा हँसूँ रोने में रोते-रोते गीत सुनाऊँ

झुलस गया सुख मन ही मन में
लपट उठी जीवन-जीवन में
नया प्‍यार बलिदान हो गया
पर प्‍यासी आत्‍मा मँडराती
प्रीति सन्‍ध्‍या के समय गगन में
अपने ही मरने पर बोलो कैसे घी के दीप जलाऊँ

गरम भस्‍म माथे पर लिपटी
कैसे उसको चन्‍दन कर लूँ
प्‍याला जो भर गया ज़हर से
सुधा कहाँ से उसमें भर लूँ
कैसे उसको महल बना दूँ
धूल बन चुका है जो खँडहर
चिता बने जीवन को आज
सुहाग-चाँदनी कैसे कर दूँ
कैसे हँस कर आशाओं के मरघट पर बिखराऊँ रोली
होली के छन्‍दों में कैसे दीपावलि के बन्‍द बनाऊँ

हम होंगे कामयाब - गिरिजाकुमार माथुर

होंगे कामयाब, होंगे कामयाब
हम होंगे कामयाब एक दिन
हो-हो मन में है विश्वास, पूरा है विश्वास
हम होंगे कामयाब एक दिन

होंगी शांति चारो ओर
होंगी शांति चारो ओर
होंगी शांति चारो ओर एक दिन
हो-हो मन में है विश्वास, पूरा है विश्वास
होंगी शांति चारो ओर एक दिन

हम चलेंगे साथ-साथ
डाल हाथों में हाथ
हम चलेंगे साथ-साथ एक दिन
हो-हो मन में है विश्वास, पूरा है विश्वास
हम चलेंगे साथ-साथ एक दिन

नहीं डर किसी का आज
नहीं भय किसी का आज
नहीं डर किसी का आज के दिन
हो-हो मन में है विश्वास, पूरा है विश्वास
नहीं डर किसी का आज के दिन

हम होंगे कामयाब एक दिन

कौन थकान हरे जीवन की - गिरिजाकुमार माथुर

कौन थकान हरे जीवन की? 
बीत गया संगीत प्यार का,
रूठ गयी कविता भी मन की ।
वंशी में अब नींद भरी है,
स्वर पर पीत सांझ उतरी है 
बुझती जाती गूंज आखिरी 
इस उदास बन पथ के ऊपर 
पतझर की छाया गहरी है,
अब सपनों में शेष रह गई
सुधियां उस चंदन के बन की ।

रात हुई पंछी घर आए,
पथ के सारे स्वर सकुचाए,
म्लान दिया बत्ती की बेला 
थके प्रवासी की आंखों में
आंसू आ आ कर कुम्हलाए,
कहीं बहुत ही दूर उनींदी 
झांझ बज रही है पूजन की ।
कौन थकान हरे जीवन की?