रविवार, 29 नवंबर 2015

गीत कविता का हृदय है - ओमप्रकाश चतुर्वेदी 'पराग'

हम अछांदस आक्रमण से, छंद को डरने न देंगे
युग-बयार बहे किसी विधि, गीत को मरने न देंगे

गीत भू की गति, पवन की लय, अजस्त्र प्रवाहमय है
पक्षियों का गान, लहर विधान, निर्झर का निलय है
गीत मुरली की मधुर ध्वनि, मंद्र सप्तक है प्रकृति का
नवरसों की आत्मा है, गीत कविता का हृदय है
बेसुरे आलाप को, सुर का हरण करने न देंगे
गीत को मरने न देंगे।

शब्द संयोजन सृजन में, गीत सर्वोपरि अचर है
जागरण का शंख, संस्कृति-पर्व का पहला प्रहर है
गीत का संगीत से संबंध शाश्वत है, सहज है
वेदना की भीड़ में, संवेदना का स्वर मुखर है
स्नेह के इस राग को, वैराग्य हम वरने न देंगे
गीत को मरने न देंगे।

गीत हैं सौंदर्य, शिव साकार, सत् का आचरण है
गीत वेदों, संहिताओं के स्वरों का अवतरण है
नाद है यह ब्रह्रम का, संवाद है माँ भारती का
गीत वाहक कल्पना का, भावनाओं का वरण है
गीत-तरु का विकच कोई पुष्प हम झरने न देंगे
गीत को मरने न देंगे।

तुझसे मागूँ और - ओमप्रकाश चतुर्वेदी 'पराग'

तुझसे मागूँ और कम मागूँ
पोर भर रहमो-करम मागूँ

तुझको जो देना है, जी भर दे
मैं कहाँ तक दम-ब-दम मागूँ

अजनबी है राह, मंज़िल दूर
हमसफ़र कितने क़दम मागूँ

हाथ की अंधी लकीरों से
रोशनी मागूँ, कि तम मागूँ
 
मैं बहुत दुविधा में हूँ यारब
तुझको मागूँ, या सनम मागूँ

 जो नहीं मिलनी मेहरबानी
क्यों न फिर जुल़्मों-सितम मागूँ

या खुद़ा, यूँ इम्तहाँ मत ले
मैं खुश़ी मागूँ न गम़ मागूँ

उत्तर कैसे दूँ मैं - ओमप्रकाश चतुर्वेदी 'पराग'

आँखों में असमंजस, अधूरों पर अनबन है
उत्तर कैसे दूँ मैं, प्रश्नों में उलझन है !

पूछा तुमने मुझसे कैसे यह तन पाया
क्या कह-कह कर मन को, दुख-सुख में भरमाया
कविता के कानन को, कैसे अभिराम किया
क्या हरक़त थी जिसने तुमको बदनाम किया
किस तरह निभाई हैं धर्म की विसंगतियाँ
हाथों में रक्त रचा, माथे पर चन्दन है
उत्तर कैसे दूँ मैं, प्रश्नों में उलझन है !

पृथ्वी, आकाश, वस्र्ण, अग्नि, वायु की रचना 
यौगिक संघर्षण से, मुश्किल ही था बचना
किसका उपहार रहा, मानुष तन पाने में 
कर्म कुछ कियें होंगे जाने-अनजाने में 
इस तन से चेतन का इतना ही है नाता
सोने के अश्व जुते, माटी का स्यंदन है
उत्तर कैसे दूँ मैं, प्रश्नों में उलझन है !

सुख शापित आयु लिये दिन दो दिन को आये
दुख के काले बादल बरसों छत पर छाये
फूलों के सौरभ-कण, कसक रहे गज़ल में
शूलों के सौ-सौ व्रण, महक रहे आँचल में
सुख-दुख की गाथाएँ, गूँगों की भाषाएँ
तन पर पसरी मथुरा, मन में वृन्दावन हैं
उत्तर कैसे दूँ मैं, प्रश्नों में उलझन है !

अंतर की पीड़ाएँ रचना बन कर उभरीं
कविताएँ अर्थ-काम मंचों से हैं उतरीं
कचरे के मोल हुई, कविता की बदनामी
यह सब जो सजधज है, मस्र्थल की मृगरज है
बाहर तो भीड़ लगी, भीतर सूनापन है
उत्तर कैसे दूँ मैं, प्रश्नों में उलझन है !

धर्म अनुष्ठानों के मर्मों को कब जाना
मैंने तो ईश्वर को कर्मों में पहचाना
रण के हर प्रांगण में मेरा ही रक्त बहा
न्दन के हर वन में मैंने ही दंश सहा
रक्त और चन्दन से देह सनी है मेरी
शापों-वरदानों का साझा अभिनन्दन है
उत्तर कैसे दूँ मैं, प्रश्नों में उलझन है !

अपनी-अपनी बात - ओमप्रकाश चतुर्वेदी 'पराग

अपनी-अपनी बात कह कर उठ गये महफ़िल से लोग
दूसरों की जो सुने, मिलते हैं वो मुश्किल से लोग

तैरने वाले की जय-जयकार दोनों पार से
देखते हैं डूबने वाले को चुप साहिल से लोग

आदमी जो भी वहाँ पहुँचा वो जीते जी मरा
हादसा यह देखकर डरने लगे मंज़िल से लोग

जान भी देने की बातें यूँ तो होती हैं यहाँ
पर दुआएँ तक कभी देते नहीं हैं दिल से लोग

इससे भी बढ़कर तमाशा और क्या होगा पराग
पूछते हैं ज़िंदगी की कैफ़ियत क़ातिल से लोग

कभी अहसास होता है - ओमप्रकाश चतुर्वेदी 'पराग'

कभी अहसास होता है मुकम्मल आदमी हूँ मैं
कभी लगता है जैसे आदमी की इक डमी हूँ मैं

कभी हूँ हर खुशी की राह में दीवार काँटों की
कभी हर दर्द के मारे की आँखों की नमी हूँ मैं

धधकता हूँ कभी ज्वालामुखी के गर्म लावे-सा
कभी पूनम की मादक चाँदनी-सा रेशमी हूँ मैं

कभी मेरे बिना सूना रहा, हर जश्न, हर महफिल
कभी त्यौहार पर भी एक सूरत मातमी हूँ मैं

कभी मौजूदगी मेरी चमन में फालतू लगती
कभी फूलों की मुस्कानों की खातिर लाजिमी हूँ मैं

आगाज हो न पाया - ओमप्रकाश चतुर्वेदी 'पराग'

आगाज हो न पाया, अंजाम हो रहा है
सिर पैर हो न जिसका, वह काम हो रहा है

दो-चार बूँद पानी क्या ले लिया नदी से
हर सिम्त समन्दर में कोहराम हो रहा है

कुछ आम रास्तों की तकदीर बस सफर है
कुछ खास मंजिलों पर आराम हो रहा है

इस पार भी है गुलशन, उस पार भी चमन है
सामान किस शहर का, नीलाम हो रहा है

पाताल के अँधेरे, आकाश तक चढ़े हैं
चन्दा उदास, सूरज नाकाम हो रहा है

कुछ लोग आइने को झूठा बता रहे हैं
सच का हरेक साया, बदनाम हो रहा है

इस दौर में यही क्या कम है पराग साहब
अपराधियों में अपना भी नाम हो रहा है

जीने का हौसला है - ओमप्रकाश चतुर्वेदी 'पराग'

जीने का हौसला है, ये और बात है
जीने का फैसला कहाँ अपने हाथ है

खुद को तलाशने में समझ आ गई हमें
सागर में एक बूँद की कितनी बिसात है

सूरज न निकलने से समय तो नहीं थमा
होता रहा है दिन भी, हुई रोज़ रात है

घिरकर मुसीबतों में न डरना, ये सोचना
गम़ डाल-डाल है, तो खुशी पात-पात है

देखें ज़रा तो हम भी कि इस राहे-वक्त़ में
मंजिल कहाँ कज़ा है, कहाँ पर हयात है

उजाला जब भी आया - ओमप्रकाश चतुर्वेदी 'पराग'

उजाला जब भी आया इस गली में
लगा ठहरा है सूरज बेबसी में

कभी तो होश में भी याद करते
पुकारा तुमने बस बेखुदी में

अगर वो रूठकर जाता तो जाता
गया वो झूमता गाता खुशी में

हजारों शाप लेकर, सोचता हूँ
दुआ भी है कहीं क्या जिन्दगी में

कहाँ मालूम था शीतल हवा को
वो डूबेगी पसीने की नदी में

खुदा का खौफ गर बाकी रहा तो
मज़ा आया कहाँ फिर मैकशी में

बफा, ईमान, सच्चाई, मोहब्बत
नहीं, तो फिर बचा क्या जिन्दगी में।

कहाँ पै आ गए हैं हम - ओमप्रकाश चतुर्वेदी 'पराग'

न ज़िन्दगी विमुक्त है, न मृत्यु कसाव है
कहाँ पै आ गए हैं हम, यह कौन-सा पड़ाव है

न ठौर है न ठाँव है, न शहर है न गाँव है
न धूप है न छाँव है
यह दृष्टि का दुराव है, कि सृष्टि का स्वभाव है

न शत्रु है न मीत है, न हार है न जीत है
न गद्य है न गीत है
न प्रीति की प्रतीति है, न द्वेष का दबाव है

न हास है न रोष है, न दिव्यता न दोष है
न रिक्तता न कोष है
बुझी हुई समृद्धि है, खिला हुआ अभाव है

न भोर है न रैन है, न दर्द है न चैन है
न मौन है न बैन है
यह प्यास का प्रपंच है, कि तृप्ति का तनाव है

न दूर है न संग है, न पूर्ण है न भंग है
अनंग है न अंग है
अरूप रूप चित्र का, विचित्र रख रखाव है

न धार है न कूल है, न शूल है न फूल है
न तथ्य है न भूल है
असत्य है न सत्य है, विशिष्ट द्वैतभाव है
कहाँ पै आ गए हैं हम, यह कौन-सा पड़ाव है।

जैसे हो वैसे ही - ओमप्रकाश चतुर्वेदी 'पराग'

कोई भी गुण अवगुण आरोपित मत करना
जो भी हो, जैसे हो, वैसे ही जी लेना।

मंज़िल तक एक भी नहीं पहुँची
कहने को कई-कई राहें थीं
मन में थी आग-सी लगी, तन के
पास बहुत पनघट की बाँहें थीं
मत रखना कोई उम्मीद घिरे बादल से
ऊसर की आँखों का पंचामृत पी लेना
जो भी हो, जैसे हो, वैसे ही जी लेना।

नग्न देवताओं का चित्रण ही
मानक है आधुनिक कलाओं का
बाजारों में जो बिक सकती हैं
रास ही है झूठ उन कथाओं का
रास जो न आये, नव-संस्कृति का यह दर्शन
देखना न सुनना, निज अधरों को सी लेना
जो भी हो, जैसे हो, वैसे ही जी लेना।

शंखनाद जिनको करना था वे
हैं तोता-मैना से सम्वादी
करनी की पत्रावलियाँ कोरी
कथनी की ढपली है फौलादी
कस लेना सौदे के सत्य को कसौटी पर
पीतल को पीतल के दामों में ही लेना
जो भी हो, जैसे हो, वैसे ही जी लेना।