बुधवार, 11 नवंबर 2015

वह मज़दूर - अनिल पाण्डेय

जिसमें उत्साह था अदम 
सह चुका जो हर सितम 
रक्त नलिकाएं भी 
दौड़ लगा रही थी 
चुस्ती फुर्ती के साथ 
जो था समाज की राजनीति से 
बहुत दूर 
वह मज़दूर 
  
फावड़ा लिए अपने कंधों पर 
चला जा रहा था 
वह निश्चिंत हो बेपनाह 
समाज-समुदाय की 
गन्दी कूटनीति से 
बहुत दूर 
वह मज़दूर 
  
राजनीति-कूटनीति 
थी सीमित उसके लिए 
यहीं पर 
हो नसीब 
मात्र दो वक़्त की रोटी 
सुख-सुकून से 
किसी तरह होती रहे 
परिवार का गुज़र-बसर 
चलाता फावड़ा इसीलिए 

रात को दिन में बदल देते है 
वे 
अपने लिए 
हो वास्तविकता के निकट 
ख़्वाबों से बहुत दूर 
वह मज़दूर॥

गंगा, बहती हो क्यूँ - नरेन्द्र शर्मा

विस्तार है अपार.. प्रजा दोनो पार.. करे हाहाकार...
निशब्द सदा ,ओ गंगा तुम, बहती हो क्यूँ ?
नैतिकता नष्ट हुई, मानवता भ्रष्ट हुई,
निर्लज्ज भाव से , बहती हो क्यूँ ?

इतिहास की पुकार, करे हुंकार,
ओ गंगा की धार, निर्बल जन को, सबल संग्रामी,
गमग्रोग्रामी,बनाती नहीँ हो क्यूँ ?

विस्तार है अपार ..प्रजा दोनो पार..करे हाहाकार ...
निशब्द सदा ,ओ गंगा तुम, बहती हो क्यूँ ?
नैतिकता नष्ट हुई, मानवता भ्रष्ट हुई,
निर्ल्लज्ज भाव से , बहती हो क्यूँ ?

इतिहास की पुकार, करे हुंकार गंगा की धार,
निर्बल जन को, सबल संग्रामी, गमग्रोग्रामी,बनाती नहीं हो क्यूँ ?
इतिहास की पुकार, करे हुंकार,ओ गंगा तुम, बहती हो क्यूँ ?

अनपढ जन, अक्षरहीन, अनगिन जन,
अज्ञ विहिन नेत्र विहिन दिक` मौन हो क्यूँ ?
व्यक्ति रहे , व्यक्ति केन्द्रित, सकल समाज,
व्यक्तित्व रहित,निष्प्राण समाज को तोड़ती न क्यूँ ?
ओ गंगा की धार, निर्बल जन को, सबल संग्रामी,
गमग्रोग्रामी,बनाती नहीं हो क्यूँ ?

विस्तार है अपार ..प्रजा दोनो पार..करे हाहाकार ...
निशब्द सदा ,ओ गंगा तुम, बहती हो क्यूँ ?

अनपढ जन, अक्षरहीन, अनगिनजन,
अज्ञ विहिननेत्र विहिन दिक` मौन हो कयूँ ?
व्यक्ति रहे , व्यक्ति केन्द्रित, सकल समाज,
व्यक्तित्व रहित,निष्प्राण समाज को तोडती न क्यूँ ?

विस्तार है अपार.. प्रजा दोनो पार.. करे हाहाकार...
निशब्द सदा ,ओ गंगा तुम, बहती हो क्यूँ ?

सुख-दुख - नरेन्द्र शर्मा

जब तक मन में दुर्बलता है
दुख से दुख, सुख से ममता है।

पर सदा न रहता जग में सुख
रहता सदा न जीवन में दुख।
छाया-से माया-से दोनों
आने-जाने हैं ये सुख-दुख।

मन भरता मन, पर क्या इनसे
आत्मा का अभाव भरता है! 

बहुत नाज था अपने सुख पर
पर न टिका दो दिन सुख-वैभव,
दुख? दुख को भी समझा सागर
एक बूँद भी नहीं रहा अब!

देखा जब दिन-रात चीड़-वन
नित कराह आहें भरता है!

मैंने दुख-कातर हो-होकर
जब-जब दर-दर कर फैलाया,
सुख के अभिलाषी मन मेरे
तब-तब सदा निरादर पाया।

ठोकर खा-खाकर पाया है
दुख का कारण कायरता है।

सुख भी नश्वर, दुख भी नश्वर
यद्यपि सुख-दुख सबके साथी,
कौन घुले फिर सोच-फिकर में
आज घड़ी क्या है, कल क्या थी।

देख तोड़ सीमायें अपनी
जोगी नित निर्भय रमता है।

जब तक तन है, आधि-व्याधि है
जब तक मन, सुख दुख है घेरे;
तू निर्बल तो क्रीत भृत्य है,
तू चाहे ये तेरे चेरे।

तू इनसे पानी भरवा, भर
ज्ञान कूप, तुझमें क्षमता है।

सुख दुख के पिंजर में बंदी
कीर धुन रहा सिर बेचारा,
सुख दुख के दो तीर चीर कर
बहती नित गंगा की धारा।

तेरा जी चाहे जो बन ले,
तू अपना करता-हरता है।

नींद उचट जाती है - नरेन्द्र शर्मा

जब-तब नींद उचट जाती है
पर क्‍या नींद उचट जाने से
रात किसी की कट जाती है?

देख-देख दु:स्‍वप्‍न भयंकर,
चौंक-चौंक उठता हूँ डरकर;
पर भीतर के दु:स्‍वप्‍नों से
अधिक भयावह है तम बाहर!
आती नहीं उषा, बस केवल
आने की आहट आती है!

देख अँधेरा नयन दूखते,
दुश्चिंता में प्राण सूखते!
सन्‍नाटा गहरा हो जाता,
जब-जब श्‍वन श्रृगाल भूँकते!
भीत भवना, भोर सुनहली
नयनों के न निकट लाती है!

मन होता है फिर सो जाऊँ,
गहरी निद्रा में खो जाऊँ;
जब तक रात रहे धरती पर,
चेतन से फिर जड़ हो जाऊँ!
उस करवट अकुलाहट थी, पर
नींद न इस करवट आती है!

करवट नहीं बदलता है तम,
मन उतावलेपन में अक्षम!
जगते अपलक नयन बावले,
थिर न पुतलियाँ, निमिष गए थम!
साँस आस में अटकी, मन को
आस रात भर भटकाती है!

जागृति नहीं अनिद्रा मेंरी,
नहीं गई भव-निशा अँधेरी!
अंधकार केंद्रित धरती पर,
देती रही ज्‍योति च‍कफेरी!
अंतर्यानों के आगे से
शिला न तम की हट पाती है!

सूरज डूब गया बल्ली भर - नरेन्द्र शर्मा

सूरज डूब गया बल्ली भर-
सागर के अथाह जल में।
एक बाँस भर उठ आया है-
चांद, ताड के जंगल में।
अगणित उंगली खोल, ताड के पत्र, चांदनी में डोले,
ऐसा लगा, ताड का जंगल सोया रजत-छत्र खोले
कौन कहे, मन कहाँ-कहाँ
हो आया, आज एक पल में।
बनता मन का मुकुर इंदु, जो मौन गगन में ही रहता,
बनता मन का मुकुर सिंधु, जो गरज-गरज कर कुछ कहता,
शशि बनकर मन चढा गगन पर,
रवि बन छिपा सिंधु तल में।
परिक्रमा कर रहा किसी की, मन बन चांद और सूरज,
सिंधु किसी का हृदय-दोल है, देह किसी की है भू-रज
मन को खेल खिलाता कोई,
निशि दिन के छाया-छल में।