मंगलवार, 10 नवंबर 2015

लोहे के पेड़ हरे होंगे - रामधारी सिंह "दिनकर"

लोहे के पेड़ हरे होंगे, 
तू गान प्रेम का गाता चल,
नम होगी यह मिट्टी ज़रूर, 
आँसू के कण बरसाता चल।
सिसकियों और चीत्कारों से,
जितना भी हो आकाश भरा,
कंकालों क हो ढेर,
खप्परों से चाहे हो पटी धरा ।
आशा के स्वर का भार, 
पवन को लेकिन, लेना ही होगा,
जीवित सपनों के लिए मार्ग 
मुर्दों को देना ही होगा।
रंगो के सातों घट उँड़ेल,
यह अँधियारी रँग जायेगी,
ऊषा को सत्य बनाने को
जावक नभ पर छितराता चल।
आदर्शों से आदर्श भिड़े, 
प्रज्ञा प्रज्ञा पर टूट रही।
प्रतिमा प्रतिमा से लड़ती है, 
धरती की किस्मत फूट रही।
आवर्तों का है विषम जाल,
निरुपाय बुद्धि चकराती है,
विज्ञान-यान पर चढी हुई
सभ्यता डूबने जाती है।
जब-जब मस्तिष्क जयी होता, 
संसार ज्ञान से चलता है,
शीतलता की है राह हृदय, 
तू यह संवाद सुनाता चल।
सूरज है जग का बुझा-बुझा,
चन्द्रमा मलिन-सा लगता है,
सब की कोशिश बेकार हुई,
आलोक न इनका जगता है,
इन मलिन ग्रहों के प्राणों में 
कोई नवीन आभा भर दे,
जादूगर! अपने दर्पण पर 
घिसकर इनको ताजा कर दे।
दीपक के जलते प्राण,
दिवाली तभी सुहावन होती है,
रोशनी जगत् को देने को
अपनी अस्थियाँ जलाता चल।
क्या उन्हें देख विस्मित होना,
जो हैं अलमस्त बहारों में,
फूलों को जो हैं गूँथ रहे 
सोने-चाँदी के तारों में।
मानवता का तू विप्र!
गन्ध-छाया का आदि पुजारी है,
वेदना-पुत्र! तू तो केवल
जलने भर का अधिकारी है।
ले बड़ी खुशी से उठा, 
सरोवर में जो हँसता चाँद मिले,
दर्पण में रचकर फूल, 
मगर उस का भी मोल चुकाता चल।
काया की कितनी धूम-धाम!
दो रोज चमक बुझ जाती है;
छाया पीती पीयुष,
मृत्यु के उपर ध्वजा उड़ाती है ।
लेने दे जग को उसे, 
ताल पर जो कलहंस मचलता है,
तेरा मराल जल के दर्पण 
में नीचे-नीचे चलता है।
कनकाभ धूल झर जाएगी,
वे रंग कभी उड़ जाएँगे,
सौरभ है केवल सार, उसे
तू सब के लिए जुगाता चल।
क्या अपनी उन से होड़, 
अमरता की जिनको पहचान नहीं,
छाया से परिचय नहीं, 
गन्ध के जग का जिन को ज्ञान नहीं?
जो चतुर चाँद का रस निचोड़
प्यालों में ढाला करते हैं,
भट्ठियाँ चढाकर फूलों से
जो इत्र निकाला करते हैं।
ये भी जाएँगे कभी, मगर,
आधी मनुष्यतावालों पर,
जैसे मुसकाता आया है, 
वैसे अब भी मुसकाता चल।
सभ्यता-अंग पर क्षत कराल,
यह अर्थ-मानवों का बल है,
हम रोकर भरते उसे,
हमारी आँखों में गंगाजल है।
शूली पर चढ़ा मसीहा को 
वे फूल नहीं समाते हैं
हम शव को जीवित करने को 
छायापुर में ले जाते हैं।
भींगी चाँदनियों में जीता,
जो कठिन धूप में मरता है,
उजियाली से पीड़ित नर के
मन में गोधूलि बसाता चल।
यह देख नयी लीला उनकी, 
फिर उनने बड़ा कमाल किया,
गाँधी के लोहू से सारे, 
भारत-सागर को लाल किया।
जो उठे राम, जो उठे कृष्ण,
भारत की मिट्टी रोती है,
क्या हुआ कि प्यारे गाँधी की
यह लाश न जिन्दा होती है?
तलवार मारती जिन्हें, 
बाँसुरी उन्हें नया जीवन देती,
जीवनी-शक्ति के अभिमानी! 
यह भी कमाल दिखलाता चल।
धरती के भाग हरे होंगे,
भारती अमृत बरसाएगी,
दिन की कराल दाहकता पर
चाँदनी सुशीतल छाएगी।
ज्वालामुखियों के कण्ठों में 
कलकण्ठी का आसन होगा,
जलदों से लदा गगन होगा, 
फूलों से भरा भुवन होगा।
बेजान, यन्त्र-विरचित गूँगी,
मूर्त्तियाँ एक दिन बोलेंगी,
मुँह खोल-खोल सब के भीतर
शिल्पी! तू जीभ बिठाता चल।

ऐसे मैं मन बहलाता हूँ - हरिवंशराय बच्चन

सोचा करता बैठ अकेले,
गत जीवन के सुख-दुख झेले,
दंशनकारी सुधियों से मैं उर के छाले सहलाता हूँ!
ऐसे मैं मन बहलाता हूँ!

नहीं खोजने जाता मरहम,
होकर अपने प्रति अति निर्मम,
उर के घावों को आँसू के खारे जल से नहलाता हूँ!
ऐसे मैं मन बहलाता हूँ!

आह निकल मुख से जाती है,
मानव की ही तो छाती है,
लाज नहीं मुझको देवों में यदि मैं दुर्बल कहलाता हूँ!
ऐसे मैं मन बहलाता हूँ!

उस पार न जाने क्या होगा - हरिवंशराय बच्चन

इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, 
उस पार न जाने क्या होगा! 
यह चाँद उदित होकर नभ में 
कुछ ताप मिटाता जीवन का, 
लहरा लहरा यह शाखाएँ 
कुछ शोक भुला देती मन का,
कल मुर्झानेवाली कलियाँ 
हँसकर कहती हैं मगन रहो, 
बुलबुल तरु की फुनगी पर से 
संदेश सुनाती यौवन का, 
तुम देकर मदिरा के प्याले 
मेरा मन बहला देती हो, 
उस पार मुझे बहलाने का 
उपचार न जाने क्या होगा! 
इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, 
उस पार न जाने क्या होगा! 

जग में रस की नदियाँ बहती, 
रसना दो बूंदें पाती है, 
जीवन की झिलमिलसी झाँकी 
नयनों के आगे आती है, 
स्वरतालमयी वीणा बजती, 
मिलती है बस झंकार मुझे, 
मेरे सुमनों की गंध कहीं 
यह वायु उड़ा ले जाती है; 
ऐसा सुनता, उस पार, प्रिये, 
ये साधन भी छिन जाएँगे; 
तब मानव की चेतनता का 
आधार न जाने क्या होगा! 
इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, 
उस पार न जाने क्या होगा! 

प्याला है पर पी पाएँगे, 
है ज्ञात नहीं इतना हमको, 
इस पार नियति ने भेजा है, 
असमर्थबना कितना हमको, 
कहने वाले, पर कहते है, 
हम कर्मों में स्वाधीन सदा, 
करने वालों की परवशता 
है ज्ञात किसे, जितनी हमको?
कह तो सकते हैं, कहकर ही 
कुछ दिल हलका कर लेते हैं, 
उस पार अभागे मानव का 
अधिकार न जाने क्या होगा! 
इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, 
उस पार न जाने क्या होगा! 

कुछ भी न किया था जब उसका, 
उसने पथ में काँटे बोये, 
वे भार दिए धर कंधों पर, 
जो रो-रोकर हमने ढोए; 
महलों के सपनों के भीतर 
जर्जर खँडहर का सत्य भरा, 
उर में ऐसी हलचल भर दी, 
दो रात न हम सुख से सोए; 
अब तो हम अपने जीवन भर 
उस क्रूर कठिन को कोस चुके; 
उस पार नियति का मानव से 
व्यवहार न जाने क्या होगा! 
इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, 
उस पार न जाने क्या होगा! 
संसृति के जीवन में, सुभगे 
ऐसी भी घड़ियाँ आएँगी, 
जब दिनकर की तमहर किरणे 
तम के अन्दर छिप जाएँगी, 
जब निज प्रियतम का शव, रजनी 
तम की चादर से ढक देगी, 
तब रवि-शशि-पोषित यह पृथ्वी 
कितने दिन खैर मनाएगी! 
जब इस लंबे-चौड़े जग का 
अस्तित्व न रहने पाएगा, 
तब हम दोनो का नन्हा-सा 
संसार न जाने क्या होगा! 
इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, 
उस पार न जाने क्या होगा! 
ऐसा चिर पतझड़ आएगा 
कोयल न कुहुक फिर पाएगी, 
बुलबुल न अंधेरे में गागा 
जीवन की ज्योति जगाएगी, 
अगणित मृदु-नव पल्लव के स्वर 
‘मरमर’ न सुने फिर जाएँगे, 
अलि-अवली कलि-दल पर गुंजन 
करने के हेतु न आएगी, 
जब इतनी रसमय ध्वनियों का 
अवसान, प्रिये, हो जाएगा, 
तब शुष्क हमारे कंठों का 
उद्गार न जाने क्या होगा! 
इस पार, प्रिये मधु है तुम हो,
उस पार न जाने क्या होगा! 
सुन काल प्रबल का गुरु-गर्जन 
निर्झरिणी भूलेगी नर्तन, 
निर्झर भूलेगा निज ‘टलमल’,
सरिता अपना ‘कलकल’ गायन, 
वह गायक-नायक सिन्धु कहीं, 
चुप हो छिप जाना चाहेगा, 
मुँह खोल खड़े रह जाएँगे 
गंधर्व, अप्सरा, किन्नरगण; 
संगीत सजीव हुआ जिनमें, 
जब मौन वही हो जाएँगे, 
तब, प्राण, तुम्हारी तंत्री का 
जड़ तार न जाने क्या होगा! 
इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, 
उस पार न जाने क्या होगा! 
उतरे इन आखों के आगे 
जो हार चमेली ने पहने, 
वह छीन रहा, देखो, माली, 
सुकुमार लताओं के गहने, 
दो दिन में खींची जाएगी 
ऊषा की साड़ी सिन्दूरी, 
पट इन्द्रधनुष का सतरंगा 
पाएगा कितने दिन रहने; 
जब मूर्तिमती सत्ताओं की 
शोभा-सुषमा लुट जाएगी, 
तब कवि के कल्पित स्वप्नों का 
श्रृंगार न जाने क्या होगा! 
इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, 
उस पार न जाने क्या होगा! 
दृग देख जहाँ तक पाते हैं, 
तम का सागर लहराता है, 
फिर भी उस पार खड़ा कोई 
हम सब को खींच बुलाता है; 
मैं आज चला तुम आओगी 
कल, परसों सब संगीसाथी, 
दुनिया रोती-धोती रहती, 
जिसको जाना है, जाता है; 
मेरा तो होता मन डगडग, 
तट पर ही के हलकोरों से! 
जब मैं एकाकी पहुँचूँगा 
मँझधार, न जाने क्या होगा!
इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, 
उस पार न जाने क्या होगा!