गुरुवार, 5 नवंबर 2015

कैदी की भावना - माखनलाल चतुर्वेदी

धूल लिपटे हुए हँस-हँस के गजब ढाते हुए,
नंद का मोद यशोदा का दिल बढ़ाते हुए,
दोनों को देखता, दोनों की सुध भुलाते हुए,
बाल घुँघरालों को मटका कर सिर नचाते हुए।
नंद जसोदा, जो वहाँ बैठे थे बतलाते हुए,
साँवला दीख पड़ा हँसता हुआ, आते हुए।
नन्द ने सोचा,--जरा पास तो आजाने दूँ,
जाने वह और न यशोदा चट चुम्मा लूँ,
खींच यशोदा ने लिया, नाथ मुझसे बातें करें,
चूम लूँ कान्ह को चुपचाप कि जब वह गुजरे।
श्याम ने, अपनी तरफ देख ली दोनों की नजर
कुछ गुनगुनाते हुए आने लगा वह नटवर।
दोनों तैयार हैं, किस ओर को पहले झपटूँ?
बाप के कन्धे, या मैय्या के हिये से लपटूँ!
पाया नजदीक, चूमने को बढ़ पड़े दोनों,
प्यार का जोर था ऐसे उमड़ पड़े दोनों--
कान्ह ने धोखा दिया, ताली बजा, पीछे खिंचा
जोर से बढ़ते हुए सर से लड़ पड़े दोनों।

तुम न हँसो - माखनलाल चतुर्वेदी

तुम न हँसो, हँसने से जालिम धोखा और सबल होता है,
मैं हँसने की जड़ खोजूँ तो वह हँसने का फल होता है,
हँसते हो जाने कैसा सा,
बिखर-बिखर पारा झरता है।
स्वयं हार जाता हूँ, देखा,
मुँह से अंगारा झरता है।
तुम न हँसो, हँसने से जालिम धोखा और सबल होता है,
हँसने से मेरे शापित बन्द हरे होते हैं,
ज्यों ज्यों मैं खाली करता हूँ,
त्यों त्यों छन्द भरे होते हैं।
हँसो नहीं मुँह कहीं तुम्हारा,
क्रूर चाँदनी लूट न लेवे।
जिसे मिलन देने आये हो,
वह बिछड़न की छूट न लेवे।
हँसते हो वर्षा होती है;
हँसते शरद लौट आती है,
हँसते थर-थर शिशिर पनपता,
हँसने पर वसन्त गाती है।
अब न हँसो ग्रीष्म दौड़ेगा,
सुनने, ओ वाणी कल्याणी,
युगों-युगों हँसती आई हो,
हरी-हरी होकर गीर्वाणी।
तुम हँसती हो मेरा गिरि पर चढ़ना ही निष्फल होता है ,
तुम न हँसो, हँसने से जालिम धोखा और सबल होता है।

ऊषा - माखनलाल चतुर्वेदी

यह बूँद-बूँद क्या? यह आँखों का पानी,
यह बूँद-बूँद क्या? ओसों की मेहमानी,
यह बूँद-बूँद क्या? नभ पर अमृत उँड़ेला,
इस बूँद-बूँद में कौन प्राण पर खेला!
लाओ युग पर प्रलयंकरि
वर्षा ढा दें,
सद्य-स्नाता भू-रानी को लहरा दें।
ऊषा बोली, दृग-द्वार खोल दे अपने,
मैं लाई हूँ कुछ मीठे-मीठे सपने,
सपनों की साँकल से, रवि का रथ जकड़ो,
युग उठा चलो अंगुलियों पर गति पकड़ो।
मत बाँट कि ये औरों के
ये अपने,
गति के गुनाह, ये मीठे मीठे सपने।
यह उषा निशा के जाने की अंगड़ाई,
तम को उज्जवल कर जब आँखों पर आई!
मैं बोला, चल समेट, तारों की ढेरी!
यह काल-कोठरी खाली कर दे मेरी!
मैं आहों में अंगार लिये
आता हूँ,
जग-जागृति का व्यापार लिये आता हूँ।
निशि ने शरमा कर पहला शशि-मुख चूमा,
तब शशि का यह अस्तित्ववान रथ घूमा,
गलबहियाँ दे, जब निशि-शशि छाये-छाये,
जब लाख-लाख तारे निज पर शरमाये।
कलियों की आँखें द्रुम-दल ने तब खोलीं,
जग का नव-जय हो गया कि चिड़ियाँ बोलीं!
इस श्याम-लता में तब-
प्रकाश के फूल-सा
सूरज आया, विद्रोही उथल-पुथल-सा।

धरती तुझसे बोल रही है - माखनलाल चतुर्वेदी

धरती बोल रही है--धीरे धीरे धीरे मेरे राजा,
मेरा छेद कलेजा हल से फिर दाना बन स्वयं समा जा।
माटी में मिल जा ओ मालिक,
माँद बना ले गिरि गह्वर में,
एक दहाड़, करोड़ गुनी हो,
गूँजे नभ की लहर लहर में।
हरी हरी दुनियाँ के स्वामी, लाल अँगारों के कमलापति,
मुट्ठी भर हड्डियाँ? नहीं, यह जग की हल-चल तेरी सम्पति।
रे इतिहास, फेंक सत्तावन वाली वह तलवार पुरानी,
आज गरीबी की ज्वालामय साँसों पर चढ़ने दे पानी।

उत्सव क्या? सूली पर चढ़ना; क्या त्योहार? मौत की बेला!
खेला कौन? अरे प्रलयंकर, तू अपने परिजन से खेला।
नेता-अनुयायी का रौरव,
वक्ता-श्रोता का यह रोना।
ओ युग! तेरे हाथों देने,
आये मूरख चन्द्र-खिलौना।
तेरे घिसते दाँतों की मचमची, गठानें खोल रही है,
धीरे-धीरे मेरे राजा, तुझसे धरती बोल रही है।

उधार के सपने - माखनलाल चतुर्वेदी

बहुत बोल क्या बोलूँ ये सब सपने हैं उधार के राजा।
बहुत भले लगते हैं; गहने अपने हैं उधार के राजा!
तुझे जोश आता है, देखा;
तुझे क्रोध आता है, माना।
पर ’हमने’ अपने दाता की
हरी पुतलियों को पहिचाना?
तू उनका युग-युग का दुश्मन, तू उनकी है आज जरूरत,
एक साथ रख देख, सलोने, उनकी सूरत और जरूरत।
तब फिर जोड़ लगाओ प्रहरी, क्या खो-खोकर, क्या-क्या पाया,
जीता कौन? पछाड़ा किसने! किसका अर्पण किसकी, माया।
तेरी एक-एक बोली पर,
सौ-सौ सिर न्यौछावर राजा।
दिल्ली के सिंहासन से टुक,
जी के सिंहासन पर आजा।
वह नेपाल प्रलय का प्रहरी, वहाँ क्रान्ति की स्फूर्ति जगी है?
जल न उठे एशिया, वहाँ के हिम-खण्डों में आग लगी है।
भारत माँ का वह सिंगार काश्मीर, कि जिस पर जग ललचाया,
धन्य भाल, नव मुण्डमाल दे, जिसे देश ने आज बचाया।
केशर के बागों में क्या,
अमरीका अंगारे बोवेगा?
क्या स्वर्गोपम धराधीश काश्मीर,
पीढ़ियों तक रोवेगा?
फिर क्या होंगे तीस कोटि नरमुण्डों के दुनियाँ में मानी?
क्यों कोई मानेगा भारत माँ के कोंखों फली जवानी?
बधिक न जीने देगा क्या काश्मीरी कस्तूरी के वे मृग?
क्या जंजीरों से जकड़े दीखेंगे देव! वितस्ता के मग?
क्या डालर के हाथ बिकेंगे
रूप-राग-अस्मत ओ मानी?
क्या नागासाकी बनने का
भय दे अणु छीनेगा पानी?
डालर, हँसिया और हथौड़ा—दो चक्की के पाटों पिसकर,
क्या एशिया चूर्ण कर देगा, कोटि-कोटि शिर कोटि-कोटि कर?
री छब्बिस जनवरी! याद की आजादी की सप्तम सीढ़ी
फलने दे स्वातंत्रय-देश में सौ-सौ बरसों सौ-सौ पीढ़ी।
वेदों से मंत्रित ओ बहना!
तेरी माँग भरी रहने दे;
बापू के व्रत पर वे शपथें--
तेरी, देवि खरी रहने दे।
हिमगिरि की अभिषेक-धार निशि-दिन क्षण-पलक झरी रहने दे!
शस्य श्यामला माँ की गोदें बन्धन-मुक्त हरी रहने दे।
तेरे चरण धुलें सागर से हो तेरा ललाट हेमांचल,
होता हो अभिषेक कल्प तक, झरता रहे अमर गंगाजल!
हाँ मणिपुरी लिये ताण्डव तक
प्रणय-प्रलय नर्तन-ध्वनि गूँजे!
रागों में अनुराग बाँध, संगीत—
तुम्हारे स्वर-पद पूजे।
वंशी-वीणा वाद्य-मंत्र हों, तलवारें हो भाषा टीका
शिर उट्ठें, शिरदान-शपथ लें, अपना रहे लाल ही टीका।
अर्ध-रात्रि में सोरठ गूँजे, उषः ’भैरवी’ पर दृग खोलें
प्रातः शस्त्र-शास्त्र-अभिमंत्रित हों तब ’भैरव’ के स्वर बोलें।
मीरा के वे गिरिधर नागर
धन्य कर दिया विष का प्याला,
सूर श्याम तू धन्य कि आँखें
खोकर भी जग किया उजाला!
मिला राम को देश-निकाला
सीता सागर पार लुटी जब
तब हमने एशिया-खण्ड में
रामराज्य का डेरा डाला!
इधर राम ने दे दी ठोकर, उधर भरत ने भी ठुकराया।
तभी ’अवध’ के सिंहासन पर विजयी रामराज्य हरषाया!
इक-इक पद पर सौ-सौ टूटें, ’कहैं कबीर सुनो भाई साधो’
अपनी इक अनमोल अकल पर रामराज्य का स्वाँग न बाँधो।
देख विनोबा के स्वर में
गरबीली माता बोल रही हैं,
कोटि हृदय मिल-मिल उठते हैं
कैसा अमृत घोल रही हैं?
भूमिदान की इस वाणी से आज हमारा केन्द्र सुरक्षित,
बापू की यादें, योद्धा की गति, अपना राष्ट्रेन्द्र सुरक्षित;
भारतीय संस्कृति के स्वर को, प्रिय सन्देहों से मत घूरो,
जले ’योजना दीप’ सतत, तो उसमें ’स्नेह-भावना’ पूरो!