मंगलवार, 3 नवंबर 2015

वह अपनी नाथ दयालुता - भारतेंदु हरिश्चंद्र

वह अपनी नाथ दयालुता तुम्हें याद हो कि न याद हो ।
वह जो कौल भक्तों से था किया तुम्हें याद हो कि न याद हो ।

व जो गीध था गनिका व थी व जो व्याध था व मलाह था
इन्हें तुमने ऊंचों की गति दिया तुम्हें याद हो कि न याद हो ।

जिन बानरों में न रूप था न तो गुन हि था न तो जात थी
उन्हें भाइयो का सा मानना तुम्हें याद हो कि न याद हो ।

खाना भील के वे जूठे फल, कहीं साग दास के घर पै चल
यूँही लाख किस्से कहूं मैं क्या तुम्हें याद हो कि न याद हो ।

कहो गोपियों से कहा था क्या, करो याद गीता की भी जरा
वानी वादा भक्त - उधार का तुम्हें याद हो कि न याद हो ।

या तुम्हारा ही `हरिचंद´ है गो फसाद में जग के बंद है
है दास जन्मों का आपका तुम्हें याद हो कि न याद हो ।।

कहाँ करुणानिधि केशव सोए - भारतेंदु हरिश्चंद्र

कहाँ करुणानिधि केशव सोये।
जागत नेक न जदपि बहु बिधि भारतवासी रोए।।

इक दिन वह हो जब तुम छिन नहिं भारतहित बिसराए।
इत के पशु गज को आरत लखि आतुर प्यादे धाए।।

इक इक दीन हीन नर के हित तुम दुख सुनि अकुलाई।
अपनी संपति जानि इनहिं तुम रछ्यौ तुरतहि धाई।।

प्रलयकाल सम जौन सुदरसन असुर प्रानसंहार।
ताकी धार भई अब कुण्ठित हमरी बेर मुरारी।।

दुष्ट जवन बरबर तुव संतति घास साग सम काटैं।
एक-एक दिन सहस-सहस नर-सीस काटि भुव पाटैं।।

ह्वै अनाथ आरज-कुल विधवा बिलपहिं दीन दुखारी।
बल करि दासी तिनहीं वनावहिं तुम नहीं लजत खरारी।।

कहाँ गए सब शास्त्र कही जिन भारी महिमा गाई।
भक्तबछल करुणानिधि तुम कहँ गायो बहुत बनाई।।

हाय सुनत नहिं निठुर भए क्यों परम दयाल कहाई।
सब बिधि बूड़त लखि निज देसहि लेहु न अबहुँ बचाई।।

मातृभाषा प्रेम पर दोहे - भारतेंदु हरिश्चंद्र

निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल
बिन निज भाषा-ज्ञान के, मिटत न हिय को सूल।

अंग्रेजी पढ़ि के जदपि, सब गुन होत प्रवीन
पै निज भाषा-ज्ञान बिन, रहत हीन के हीन।

उन्नति पूरी है तबहिं जब घर उन्नति होय
निज शरीर उन्नति किये, रहत मूढ़ सब कोय।

निज भाषा उन्नति बिना, कबहुं न ह्यैहैं सोय
लाख उपाय अनेक यों भले करे किन कोय।

इक भाषा इक जीव इक मति सब घर के लोग
तबै बनत है सबन सों, मिटत मूढ़ता सोग।

और एक अति लाभ यह, या में प्रगट लखात
निज भाषा में कीजिए, जो विद्या की बात।

तेहि सुनि पावै लाभ सब, बात सुनै जो कोय
यह गुन भाषा और महं, कबहूं नाहीं होय।

विविध कला शिक्षा अमित, ज्ञान अनेक प्रकार
सब देसन से लै करहू, भाषा माहि प्रचार।

भारत में सब भिन्न अति, ताहीं सों उत्पात
विविध देस मतहू विविध, भाषा विविध लखात।

सब मिल तासों छांड़ि कै, दूजे और उपाय
उन्नति भाषा की करहु, अहो भ्रातगन आय।

यमुना-वर्णन - भारतेंदु हरिश्चंद्र

तरनि तनूजा तट तमाल तरुवर बहु छाये।
झुके कूल सों जल-परसन हित मनहु सुहाये॥
किधौं मुकुर मैं लखत उझकि सब निज-निज सोभा।
कै प्रनवत जल जानि परम पावन फल लोभा॥
मनु आतप वारन तीर कौं, सिमिटि सबै छाये रहत।
कै हरि सेवा हित नै रहे, निरखि नैन मन सुख लहत॥१॥ 

तिन पै जेहि छिन चन्द जोति रक निसि आवति ।
जल मै मिलिकै नभ अवनी लौं तानि तनावति॥
होत मुकुरमय सबै तबै उज्जल इक ओभा ।
तन मन नैन जुदात देखि सुन्दर सो सोभा ॥
सो को कबि जो छबि कहि , सकै ता जमुन नीर की ।
मिलि अवनि और अम्बर रहत ,छबि इक - सी नभ तीर की ॥२॥ 

परत चन्र्द प्रतिबिम्ब कहूँ जल मधि चमकायो ।
लोल लहर लहि नचत कबहुँ सोइ मन भायो॥
मनु हरि दरसन हेत चन्र्द जल बसत सुहायो ।
कै तरंग कर मुकुर लिये सोभित छबि छायो ॥
कै रास रमन मैं हरि मुकुट आभा जल दिखरात है ।
कै जल उर हरि मूरति बसति ता प्रतिबिम्ब लखात है ॥३ ॥

कबहुँ होत सत चन्द कबहुँ प्रगटत दुरि भाजत । 
पवन गवन बस बिम्ब रूप जल मैं बहु साजत ।।
मनु ससि भरि अनुराग जामुन जल लोटत डोलै ।
कै तरंग की डोर हिंडोरनि करत कलोलैं ।।
कै बालगुड़ी नभ में उड़ी, सोहत इत उत धावती ।
कई अवगाहत डोलात कोऊ ब्रजरमनी जल आवती ।।४।।

मनु जुग पच्छ प्रतच्छ होत मिटी जात जामुन जल ।
कै तारागन ठगन लुकत प्रगटत ससि अबिकल ।।
कै कालिन्दी नीर तरंग जितौ उपजावत ।
तितनो ही धरि रूप मिलन हित तासों धावत ।।
कै बहुत रजत चकई चालत कै फुहार जल उच्छरत ।
कै निसिपति मल्ल अनेक बिधि उठि बैठत कसरत करत ।।५।।

कूजत कहुँ कलहंस कहूँ मज्जत पारावत ।
कहुँ काराणडव उडत कहूँ जल कुक्कुट धावत ।।
चक्रवाक कहुँ बसत कहूँ बक ध्यान लगावत ।
सुक पिक जल कहुँ पियत कहूँ भ्रम्रावलि गावत ।।
तट पर नाचत मोर बहु रोर बिधित पच्छी करत । 
जल पान न्हान करि सुख भरे तट सोभा सब धरत ।।६।।

गंगा-वर्णन - भारतेंदु हरिश्चंद्र

नव उज्ज्वल जलधार हार हीरक सी सोहति।
बिच-बिच छहरति बूंद मध्य मुक्ता मनि पोहति॥

लोल लहर लहि पवन एक पै इक इम आवत ।
जिमि नर-गन मन बिबिध मनोरथ करत मिटावत॥

सुभग स्वर्ग-सोपान सरिस सबके मन भावत।
दरसन मज्जन पान त्रिविध भय दूर मिटावत॥

श्रीहरि-पद-नख-चंद्रकांत-मनि-द्रवित सुधारस।
ब्रह्म कमण्डल मण्डन भव खण्डन सुर सरबस॥

शिवसिर-मालति-माल भगीरथ नृपति-पुण्य-फल।
एरावत-गत गिरिपति-हिम-नग-कण्ठहार कल॥

सगर-सुवन सठ सहस परस जल मात्र उधारन।
अगनित धारा रूप धारि सागर संचारन॥

दशरथ विलाप - भारतेंदु हरिश्चंद्र

कहाँ हौ ऐ हमारे राम प्यारे । 
किधर तुम छोड़कर मुझको सिधारे ।।

बुढ़ापे में ये दु:ख भी देखना था। 
इसी के देखने को मैं बचा था ।।

छिपाई है कहाँ सुन्दर वो मूरत । 
दिखा दो साँवली-सी मुझको सूरत ।।

छिपे हो कौन-से परदे में बेटा । 
निकल आवो कि अब मरता हु बुड्ढा ।।

बुढ़ापे पर दया जो मेरे करते । 
तो बन की ओर क्यों तुम पर धरते ।।

किधर वह बन है जिसमें राम प्यारा । 
अजुध्या छोड़कर सूना सिधारा ।।

गई संग में जनक की जो लली है 
इसी में मुझको और बेकली है ।।

कहेंगे क्या जनक यह हाल सुनकर । 
कहाँ सीता कहाँ वह बन भयंकर ।। 

गया लछमन भी उसके साथ-ही-साथ । 
तड़पता रह गया मैं मलते ही हाथ ।।

मेरी आँखों की पुतली कहाँ है । 
बुढ़ापे की मेरी लकड़ी कहाँ है ।।

कहाँ ढूँढ़ौं मुझे कोई बता दो । 
मेरे बच्चो को बस मुझसे मिला दो ।।

लगी है आग छाती में हमारे। 
बुझाओ कोई उनका हाल कह के ।।

मुझे सूना दिखाता है ज़माना । 
कहीं भी अब नहीं मेरा ठिकाना ।।

अँधेरा हो गया घर हाय मेरा । 
हुआ क्या मेरे हाथों का खिलौना ।।

मेरा धन लूटकर के कौन भागा । 
भरे घर को मेरे किसने उजाड़ा ।।

हमारा बोलता तोता कहाँ है । 
अरे वह राम-सा बेटा कहाँ है ।।

कमर टूटी, न बस अब उठ सकेंगे । 
अरे बिन राम के रो-रो मरेंगे ।।

कोई कुछ हाल तो आकर के कहता । 
है किस बन में मेरा प्यारा कलेजा ।।

हवा और धूप में कुम्हका के थककर । 
कहीं साये में बैठे होंगे रघुवर ।।

जो डरती देखकर मट्टी का चीता । 
वो वन-वन फिर रही है आज सीता ।।

कभी उतरी न सेजों से जमीं पर । 
वो फिरती है पियोदे आज दर-दर ।।

न निकली जान अब तक बेहया हूँ । 
भला मैं राम-बिन क्यों जी रहा हूँ ।।

मेरा है वज्र का लोगो कलेजा । 
कि इस दु:ख पर नहीं अब भी य फटता ।।

मेरे जीने का दिन बस हाय बीता । 
कहाँ हैं राम लछमन और सीता ।।

कहीं मुखड़ा तो दिखला जायँ प्यारे । 
न रह जाये हविस जी में हमारे ।।

कहाँ हो राम मेरे राम-ए-राम । 
मेरे प्यारे मेरे बच्चे मेरे श्याम ।।

मेरे जीवन मेरे सरबस मेरे प्रान । 
हुए क्या हाय मेरे राम भगवान ।।

कहाँ हो राम हा प्रानों के प्यारे । 
यह कह दशरथ जी सुरपुर सिधारे ।।