रविवार, 1 नवंबर 2015

याचना - जयशंकर प्रसाद


जब प्रलय का हो समय, ज्वालामुखी निज मुख खोल दे
सागर उमड़ता आ रहा हो, शक्ति-साहस बोल दे
ग्रहगण सभी हो केन्द्रच्युत लड़कर परस्पर भग्न हों
उस समय भी हम हे प्रभो ! तव पदृमपद में लग्न हो

जब शैल के सब श्रृंग विद्युद़ वृन्द के आघात से 
हों गिर रह भीषण मचाते विश्व में व्याघात-से
जब र घिर रहे हों प्रलय-घन अवकाश-गत आकाश में
तब भी प्रभो ! यह मन खिंचे तव प्रेम-धारा-पाश में

जब क्रूर षडरिपु के कुचक्रों में पड़े यह मन कभी
जब दुःख कि ज्वालावली हों भस्म करती सुख सभी
जब हों कृतघ्नों के कुटिल आघात विद्युत्पात-से
जब स्वार्थी दुख दे रहे अपने मलिन छलछात से

जब छोड़कर प्रेमी तथा सन्मित्र सब संसार में
इस घाव पर छिड़कें नमक, हो दुख खड़ा आकार में
करूणानिधे ! हों दुःखसागर में कि हम आनन्द में 
मन-मधुप हो विश्वस्त-प्रमुदित तव चरण अरविन्द में

हम सुमन हो की सेज पर या कंटको की आड़ में 
पर प्राणधन ! तुम छिपे रहना, इस हृदय की आड़ में 
हम हो कहीं इस लोक में, उस लोक में, भूलोक में
तव प्रेम-पथ में ही चलें, हे नाथ ! तव आलोक में

हृदय-वेदना - जयशंकर प्रसाद


सुनो प्राण-प्रिय, हृदय-वेदना विकल हुई क्या कहती है
तव दुःसह यह विरह रात-दिन जैसे सुख से सहती है
मै तो रहता मस्त रात-दिन पाकर यही मधुर पीड़ा
वह होकर स्वच्छन्द तुम्हारे साथ किया करती क्रीड़ा

हृदय-वेदना मधुर मूर्ति तब सदा नवीन बनाती है
तुम्हें न पाकर भी छाया में अपना दिवस बिताती है 
कभी समझकर रूष्ट तुम्हें वह करके विनय मनाती है
तिरछी चितवन भी पा करके तुरत तुष्ट हो जाती है

जब तुम सदय नवल नीरद से मन-पट पर छा जाते हो
पीड़ास्थल पर शीतल बनकर तब आँसू बरसाते हो
मूर्ति तुम्हारी सदय और निर्दय दोनो ही भाती है
किसी भाँति भी पा जाने पर तुमको यह सुख पाती है

कभी-कभी हो ध्यान-वंचिता बड़ी विकल हो जाती है 
क्रोधित होकर फिर यह हमको प्रियतम ! बहुत सताती है
इसे तम्हारा एक सहारा, किया करो इससे क्रीड़ा 
मैं तो तुमको भूल गया हूँ पाकर प्रेममयी पीड़ा

करूण क्रन्दन - जयशंकर प्रसाद


करूणा-निधे, यह करूण क्रन्दन भी ज़रा सुन लीजिये
कुछ भी दया हो चित्त में तो नाथ रक्षा कीजिये ।

हम मानते, हम हैं अधम, दुष्कर्म के भी छात्र हैं
हम है तुम्हारे, इसलिये फिर भी दया के पात्र हैं ।

सुख में न तुमको याद करता, है मनुज की गति यही
पर नाथ, पड़कर दुःख में किसने पुकारा है नहीं ।

सन्तुष्ट बालक खेलने से तो कभी थकता नहीं
कुछ क्लेश पाते, याद पड़ जाते पिता-माता वही ।

संसार के इस सिन्धु में उठती तरंगे घोर हैं
तैसी कुहू की है निशा, कुछ सूझता नहीं छोर हैं ।

झंझट अनेकों प्रबल झंझा-सदृश है अति-वेग में
है बुद्धि चक्कर में भँवर सी घूमती उद्वेग में ।

गुण जो तुम्हारा पार करने का उसे विस्मृत न हो
वह नाव मछली को खिलाने की प्रभो बंसी न हो ।

हे गुणाधार, तुम्हीं बने हो कर्णधार विचार लो
है दूसरा अब कौन, जैसे बने नाथ ! सम्हार लो ।

ये मानसिक विप्लव प्रभो, जो हो रहे दिन-रात हैं
कुविचार-क्रूरों के कठिन कैसे कुठिल आघात हैं ।

हे नाथ, मेरे सारथी बन जाव मानस-युद्ध में 
फिर तो ठहरने से बचेंगे एक भी न विरूद्ध में ।

बाल-कीड़ा - जयशंकर प्रसाद


हँसते हो तो हँसो खूब, पर लोट न जाओ
हँसते-हँसते आँखों से मत अश्रु बहाओ
ऐसी क्या है बात ? नहीं जो सुनते मेरी 
मिली तुम्हें क्या कहो कहीं आनन्द की ढेरी


ये गोरे-गोरे गाल है लाल हुए अति मोद से
क्या क्रीड़ा करता है हृदय किसी स्वतंत्र विनोद से

उपवन के फल-फूल तुम्हारा मार्ग देखते 
काँटे ऊँवे नहीं तुम्हें हैं एक लेखते
मिलने को उनसे तुम दौड़े ही जाते हो
इसमें कुछ आनन्द अनोखा पा जाते हो

माली बूढ़ा बकबक किया करता है, कुछ बस नहीं 
जब तुमने कुछ भी हँस दिया, क्रोध आदि सब कुछ नहीं
 
राजा हा या रंक एक ही-सा तुमको है 
स्नेह-योग्य है वही हँसता जो तुमको है
मान तुम्हारा महामानियो से भारी है 
मनोनीत जो बात हुई तो सुखकारी है।

वृद्धों की गल्पकथा कभी होती जब प्रारम्भ है 
कुछ सुना नहीं तो भी तुरत हँसने का आरम्भ है

कुछ नहीं - जयशंकर प्रसाद

हँसी आती हैं मुझको तभी,
जब कि यह कहता कोई कहीं-
अरे सच, वह तो हैं कंगाल,
अमुक धन उसके पास नहीं।

सकल निधियों का वह आधार,
प्रमाता अखिल विश्व का सत्य,
लिये सब उसके बैठा पास,
उसे आवश्यकता ही नही।

और तुम लेकर फेंकी वस्तु,
गर्व करते हो मन में तुच्छ,
कभी जब ले लेगा वह उसे,
तुम्हारा तब सब होगा नहीं।

तुम्हीं तब हो जाओगे दीन,
और जिसका सब संचित किए,
साथ बैठा है सब का नाथ,
उसे फिर कमी कहाँ की रही?

शान्त रत्नाकर का नाविक,
गुप्त निधियों का रक्षक यक्ष,
कर रहा वह देखो मृदु हास,
और तुम कहते हो कुछ नहीं।

अतिथि - जयशंकर प्रसाद

दूर हटे रहते थे हम तो आप ही
क्यों परिचित हो गये ? न थे जब चाहते-
हम मिलना तुमसे। न हृदय में वेग था
स्वयं दिखा कर सुन्दर हृदय मिला दिया

दूध और पानी-सी; अब फिर क्या हुआ-
देकर जो कि खटाई फाड़ा चाहते?
भरा हुआ था नवल मेघ जल-बिन्दु से,
ऐसा पवन चलाया, क्यों बरसा दिया?

शून्य हृदय हो गया जलद, सब प्रेम-जल-
देकर तुन्हें। न तुम कुछ भी पुलकित हुए।
मरु-धरणी सम तुमने सब शोषित किया।
क्या आशा थी आशा कानन को यही?

चंचल हृदय तुम्हारा केवल खेल था,
मेरी जीवन मरण समस्या हो गई।
डरते थे इसको, होते थे संकुचित
कभी न प्रकटित तुम स्वभाव कर दो कभी।

होली की रात - जयशंकर प्रसाद

बरसते हो तारों के फूल
छिपे तुम नील पटी में कौन?
उड़ रही है सौरभ की धूल
कोकिला कैसे रहती मीन।

चाँदनी धुली हुई हैं आज
बिछलते है तितली के पंख।
सम्हलकर, मिलकर बजते साज
मधुर उठती हैं तान असंख।

तरल हीरक लहराता शान्त
सरल आशा-सा पूरित ताल।
सिताबी छिड़क रहा विधु कान्त
बिछा हैं सेज कमलिनी जाल।

पिये, गाते मनमाने गीत
टोलियों मधुपों की अविराम।
चली आती, कर रहीं अभीत
कुमुद पर बरजोरी विश्राम।

उड़ा दो मत गुलाल-सी हाय
अरे अभिलाषाओं की धूल।
और ही रंग नही लग लाय
मधुर मंजरियाँ जावें झूल।

विश्व में ऐसा शीतल खेल
हृदय में जलन रहे, क्या हात!
स्नेह से जलती ज्वाला झेल
बना ली हाँ, होली की रात॥

आह ! वेदना मिली विदाई - जयशंकर प्रसाद


आह! वेदना मिली विदाई
मैंने भ्रमवश जीवन संचित,
मधुकरियों की भीख लुटाई


छलछल थे संध्या के श्रमकण
आँसू-से गिरते थे प्रतिक्षण
मेरी यात्रा पर लेती थी
नीरवता अनंत अँगड़ाई


श्रमित स्वप्न की मधुमाया में
गहन-विपिन की तरु छाया में
पथिक उनींदी श्रुति में किसने
यह विहाग की तान उठाई


लगी सतृष्ण दीठ थी सबकी
रही बचाए फिरती कब की
मेरी आशा आह! बावली
तूने खो दी सकल कमाई


चढ़कर मेरे जीवन-रथ पर
प्रलय चल रहा अपने पथ पर
मैंने निज दुर्बल पद-बल पर
उससे हारी-होड़ लगाई


लौटा लो यह अपनी थाती
मेरी करुणा हा-हा खाती
विश्व! न सँभलेगी यह मुझसे
इसने मन की लाज गँवाई

तुम कनक किरन - जयशंकर प्रसाद

तुम कनक किरन के अंतराल में
लुक छिप कर चलते हो क्यों ?

नत मस्तक गवर् वहन करते
यौवन के घन रस कन झरते
हे लाज भरे सौंदर्य बता दो
मोन बने रहते हो क्यो?

अधरों के मधुर कगारों में
कल कल ध्वनि की गुंजारों में
मधु सरिता सी यह हंसी तरल
अपनी पीते रहते हो क्यों?

बेला विभ्रम की बीत चली
रजनीगंधा की कली खिली
अब सांध्य मलय आकुलित दुकूल
कलित हो यों छिपते हो क्यों?

आत्‍मकथा - जयशंकर प्रसाद

मधुप गुन-गुनाकर कह जाता कौन कहानी अपनी यह,
मुरझाकर गिर रहीं पत्तियाँ देखो कितनी आज घनी।
इस गंभीर अनंत-नीलिमा में असंख्‍य जीवन-इतिहास
यह लो, करते ही रहते हैं अपने व्‍यंग्‍य मलिन उपहास
तब भी कहते हो-कह डालूँ दुर्बलता अपनी बीती।
तुम सुनकर सुख पाओगे, देखोगे-यह गागर रीती।
किंतु कहीं ऐसा न हो कि तुम ही खाली करने वाले-
अपने को समझो, मेरा रस ले अपनी भरने वाले।
यह विडंबना! अरी सरलते हँसी तेरी उड़ाऊँ मैं।
भूलें अपनी या प्रवंचना औरों की दिखलाऊँ मैं।
उज्‍ज्‍वल गाथा कैसे गाऊँ, मधुर चाँदनी रातों की।
अरे खिल-खिलाकर हँसतने वाली उन बातों की।
मिला कहाँ वह सुख जिसका मैं स्‍वप्‍न देकर जाग गया।
आलिंगन में आते-आते मुसक्‍या कर जो भाग गया।
जिसके अरूण-कपोलों की मतवाली सुन्‍दर छाया में।
अनुरागिनी उषा लेती थी निज सुहाग मधुमाया में।
उसकी स्‍मृति पाथेय बनी है थके पथिक की पंथा की।
सीवन को उधेड़ कर देखोगे क्‍यों मेरी कंथा की?
छोटे से जीवन की कैसे बड़े कथाएँ आज कहूँ?
क्‍या यह अच्‍छा नहीं कि औरों की सुनता मैं मौन रहूँ?
सुनकर क्‍या तुम भला करोगे मेरी भोली आत्‍मकथा?
अभी समय भी नहीं, थकी सोई है मेरी मौन व्‍यथा।

भारत महिमा - जयशंकर प्रसाद

हिमालय के आँगन में उसे, प्रथम किरणों का दे उपहार 
उषा ने हँस अभिनंदन किया और पहनाया हीरक-हार।

जगे हम, लगे जगाने विश्व, लोक में फैला फिर आलोक 
व्योम-तम पुँज हुआ तब नष्ट, अखिल संसृति हो उठी अशोक। 


विमल वाणी ने वीणा ली, कमल कोमल कर में सप्रीत 
सप्तस्वर सप्तसिंधु में उठे, छिड़ा तब मधुर साम-संगीत।

बचाकर बीज रूप से सृष्टि, नाव पर झेल प्रलय का शीत 
अरुण-केतन लेकर निज हाथ, वरुण-पथ पर हम बढ़े अभीत। 

सुना है वह दधीचि का त्याग, हमारी जातीयता विकास 
पुरंदर ने पवि से है लिखा, अस्थि-युग का मेरा इतिहास।

सिंधु-सा विस्तृत और अथाह, एक निर्वासित का उत्साह 
दे रही अभी दिखाई भग्न, मग्न रत्नाकर में वह राह। 

धर्म का ले लेकर जो नाम, हुआ करती बलि कर दी बंद 
हमीं ने दिया शांति-संदेश, सुखी होते देकर आनंद। 

विजय केवल लोहे की नहीं, धर्म की रही धरा पर धूम 
भिक्षु होकर रहते सम्राट, दया दिखलाते घर-घर घूम।

यवन को दिया दया का दान, चीन को मिली धर्म की दृष्टि 
मिला था स्वर्ण-भूमि को रत्न, शील की सिंहल को भी सृष्टि। 

किसी का हमने छीना नहीं, प्रकृति का रहा पालना यहीं 
हमारी जन्मभूमि थी यहीं, कहीं से हम आए थे नहीं।

जातियों का उत्थान-पतन, आँधियाँ, झड़ी, प्रचंड समीर 
खड़े देखा, झेला हँसते, प्रलय में पले हुए हम वीर। 

चरित थे पूत, भुजा में शक्ति, नम्रता रही सदा संपन्न 
हृदय के गौरव में था गर्व, किसी को देख न सके विपन्न। 

हमारे संचय में था दान, अतिथि थे सदा हमारे देव 
वचन में सत्य, हृदय में तेज, प्रतिज्ञा मे रहती थी टेव। 

वही है रक्त, वही है देश, वही साहस है, वैसा ज्ञान 
वही है शांति, वही है शक्ति, वही हम दिव्य आर्य-संतान। 

जियें तो सदा इसी के लिए, यही अभिमान रहे यह हर्ष 
निछावर कर दें हम सर्वस्व, हमारा प्यारा भारतवर्ष

अरुण यह मधुमय देश हमारा - जयशंकर प्रसाद

अरुण यह मधुमय देश हमारा।
जहाँ पहुँच अनजान क्षितिज को मिलता एक सहारा।।
सरल तामरस गर्भ विभा पर, नाच रही तरुशिखा मनोहर।
छिटका जीवन हरियाली पर, मंगल कुंकुम सारा।।
लघु सुरधनु से पंख पसारे, शीतल मलय समीर सहारे।
उड़ते खग जिस ओर मुँह किए, समझ नीड़ निज प्यारा।।
बरसाती आँखों के बादल, बनते जहाँ भरे करुणा जल।
लहरें टकरातीं अनन्त की, पाकर जहाँ किनारा।।
हेम कुम्भ ले उषा सवेरे, भरती ढुलकाती सुख मेरे।
मंदिर ऊँघते रहते जब, जगकर रजनी भर तारा।।