बुधवार, 7 अक्तूबर 2015

शांति रहे पर क्रांति रहे - गोपालशरण सिंह

फूल हँसें खेलें नित फूलें,
पवन दोल पर सुख से झूलें 
किन्तु शूल को कभी न भूलें,

स्थिरता आती है जीवन में 
यदि कुछ नहीं अशान्ति रहे 
शांति रहे पर क्रांति रहे !

यदि निदाघ क्षिति को न तपावे,
तो क्या फिर घन जल बरसावे ?
कैसे जीवन जग में आवे ?

यदि न बदलती रहे जगत में,
तो किसको प्रिय कांति रहे ?
शांति रहे पर कांति रहे !

उन्नति हो अथवा अवनति हो ,
यदि निश्चित मनुष्य की गति हो ,
तो फिर किसे क्रम में रति हो ?

रहे अतल विश्वास चित्त में ,
किन्तु तनिक सी भ्रान्ति रहे 
शांति रहे पर क्राँति रहे ?

दीन भारत के किसान - गोपालशरण सिंह

कर रहे हैं ये युगों से 
ग्राम में अज्ञात-वास,
अंग जीवन का बनी है 
जन्म से ही भूख-प्यास,
किन्तु हरते क्लेश हैं निज 
देश को कर अन्न-दान 
दीन भारत के किसान ।

हैं सदा संतुष्ट रहते 
क्लेश भी सहकर विशेष,
लोभ को न कदापि देते 
चित्त में करने प्रवेश,
याचना करते नहीं रख 
कर हृदय में स्वाभिमान 
दीन भारत के किसान ।

विश्व परिवर्तित हुआ पर 
ये बदलते हैं न वेश,
छोड़ते हैं ये नहीं निज 
अंध-कूपों का प्रदेश,
बंद रखते हैं सदा किस 
मोह से निज आँख-कान 
दीन भारत के किसान ।


भूमि के हैं भक्त ये जो 
नित्य देती अन्न-वस्त्र,
बैल है सम्पत्ति इनकी 
और हल हैं दिव्य अस्त्र,
ज्ञान-वृद्धि हुई बहुत पर 
रह गए भोले अजान 
दीन भारत के किसान ।


घूमता है वारिदों के 
साथ इनका भाग्य-चक्र,
रंग में इनके हृदय के 
है रंगा सुरचाप वक्र,
यदि हुई पर्याप्त कृषि तो 
हो गए सम्पत्तिवान 
दीन भारत के किसान ।


हो रहा विज्ञान का है 
विश्व में कब से विकास ?
पर न इनके पास अब तक 
है पहुँच पाया प्रकाश,
देश की अवनत दशा पर 
मोह वश देते न ध्यान 
दीन भारत के किसान ।


देश में क्या हो रहा है 
है इन्हें कुछ भी न ज्ञान,
है इन्हें दिखता न जग में 
रुचिर नवयुग का विहान,
निज पुराने राग का बस 
कर रहे हैं नित्य गान 
दीन भारत के किसान ।

वसन्त वर्णन - गोपालशरण सिंह

द्रुतविलम्बित

दुखद दूर हुआ हिम-त्रास है, सुखद आगत श्री मधुमास है ।
अब कहीं, दुख का न निवास है, सब कहीं बस हास-विलास है ।।1।।

दिवस रम्य, निशा रमणीय है, सब दिशा विदिशा कमनीय हैं ।
सुखद मन्द सुगन्ध समीर है, चित चहे अब शीतल नीर है ।।2।।

विविध पुष्प खिले छविवन्त हैं, अति मनोहर रंग अनन्त हैं ।
मधुप को करते मधु दान हैं, अतिथि का करते सब मान हैं ।।3।।

दुखित दीन जिन्हें हिम की व्यथा, असहनीय रही नित सर्वथा ।
मुदित हैं अति शीत-विनाश से, छूट गए अब वे यम-पाश से ।।4।।

खिल गए अब पंकज-पुंज हैं, कर रहे जिन पै अलि पुंज हैं ।
मिट तुषार गया सब सर्वथा, विशद कान्ति हुई शशि की तथा ।।5।।

भ्रमर-शब्द मनोहर गान है, सुमन ही जिन की मुसकान हैं ।
पवन कम्पि मंजु लता सब, सुखद नृत्य मनो करती अब ।।6।। 


वसन्ततिलका


फूले अनार कचनार अशोक-जाल,
धारे रसाल नवपल्लव लाल लाल ।।
चम्पा-कली हर रही मनु रूप-राशि,
श्रीमद्वसन्त-नृप की वलि दीपिका-सी ।।7।।

फूले फले अब सभी द्रुम हैं सुहाते, बैठे विहंग जिनकी सुषमा बढाते ।
शोभा मनोग्य शुक के मुख की चुराए, लेते पलाश वन में मन को लुभाए ।।8।। 


मंदाक्रान्ता


है पृथ्वी में अतिशय सभी ओर आनन्द छाया,
क्या पक्षी क्या पशु तरु लता है सभी में समाया ।
धीरे-धीरे अब गगन में श्री सहस्त्रांशु जाते,
मानो वे भी मुदित जग को देखते हैं मोद माते ।।9।।

पुष्पों की ले सुरभि बहता वायु है मन्द-मन्द,
लोनी-लोनी नवल लतिका कम्प पाती अमन्द ।
मानो आता निकट लख के वायु को लजातीं,
जल्दी से वे बस इसलिये शीश नीचे नवतीं ।।10।।

बैठी वृ्क्षों पर मुदित हो कोकिलें बोलती हैं,
मानो मीठी श्रवण पुट में शर्करा घोलती हैं ।
है भृंगों के सहित अति ही कुन्द का फूल भाता,
मानो मोती ललित अलकों से घिरा है सुहाता ।।11।।

शार्दूलविक्रीडित

स्वर्णाभूषण कर्णिकार जिसका अत्यन्त शोभा सना,
धारे किंशुकरूप लाल पट जो सौन्दर्यशाली घना ।
भाती कज्जल-सी ललाम जिस के है मंजु भृंगावली,
लेती मोह वनस्थली न किस को यों अंगना-सी भली ।।12।।

मुझे अकेला ही रहने दो - गोपालशरण सिंह

रहने दो मुझको निर्जन में
काँटों को चुभने दो तन में
मैं न चाहता सुख जीवन में
करो न चिंता मेरी मन में
घोर यातना ही सहने दो
मुझे अकेला ही रहने दो !

मैं न चाहता हार बनूँ मैं 
या कि प्रेम उपहार बनूँ मैं
या कि शीश-शृंगार बनूँ मैं
मैं हूँ फूल मुझे जीवन की
सरिता में ही तुम बहने दो
मुझे अकेला ही रहने दो !

नहीं चाहता हूँ मैं आदर
हेम और रत्नों का सागर
नहीं चाहता हूँ कोई वर
मत रोको इस निर्मम जग को
जो जी में आए कहने दो
मुझे अकेला ही रहने दो !

माँ - गोपालशरण सिंह

है जग-जीवन की जननी तू 
तेरा जीवन ही है त्याग ।
है अमूल्य वैभव वसुधा का 
तेरा मूर्तिमान अनुराग ।

धूल-धूसरित रत्न जगत का 
है तेरी गोदी का लाल ।
है जग-बाल जलज का रक्षक 
माँ, तेरा मृदु बाहु मृणाल ।

कितनी घोर तपस्या करके 
पाती है तू यह वरदान ?
किन्तु विश्व को अनायास ही 
कर देती है उसे प्रदान ।

है तुझसे ही लालित-पालित 
यह भोला-भला संसार ।
करती है प्लावित वसुधा को 
तेरी प्रेम सुधा की धार ।

तेरे दिव्य हृदय में जिसका 
रहता है सदैव संचार ।
लिए अंक में मृदुल सुमन को 
लता दिखाती है वह प्यार ।

वनस्थली के अंग-अंग में 
होता तेरा प्रेम-विकास ।
नव-बसंत उसके आँगन में 
जब क्रीड़ा करता सोल्लास ।

सुत वियोग-दुख से विह्वल हो 
रोते हैं माँ तेरे प्राण ।
किन्तु सभी कुछ सह लेती तू 
हो जिससे जग का कल्याण ।