शुक्रवार, 25 सितंबर 2015

दो अनुभूतियाँ - अटल बिहारी वाजपेयी

हली अनुभूति:
गीत नहीं गाता हूँ |

बेनक़ाब चेहरे हैं,
दाग़ बड़े गहरे हैं 
टूटता तिलिस्म आज सच से भय खाता हूँ
गीत नहीं गाता हूँ
लगी कुछ ऐसी नज़र
बिखरा शीशे सा शहर

अपनों के मेले में मीत नहीं पाता हूँ
गीत नहीं गाता हूँ |

पीठ मे छुरी सा चांद 
राहू गया रेखा फांद
मुक्ति के क्षणों में बार बार बंध जाता हूँ
गीत नहीं गाता हूँ

दूसरी अनुभूति:
गीत नया गाता हूँ |

टूटे हुए तारों से फूटे बासंती स्वर
पत्थर की छाती मे उग आया नव अंकुर
झरे सब पीले पात
कोयल की कुहुक रात

प्राची मे अरुणिम की रेख देख पता हूँ
गीत नया गाता हूँ |

टूटे हुए सपनों की कौन सुने सिसकी
अन्तर की चीर व्यथा पलको पर ठिठकी
हार नहीं मानूँगा,
रार नहीं ठानूँगा,

काल के कपाल पे लिखता मिटाता हूँ
गीत नया गाता हूँ |

मैं अखिल विश्व का गुरू महान - अटल बिहारी वाजपेयी

मैं अखिल विश्व का गुरू महान,
देता विद्या का अमर दान,
मैंने दिखलाया मुक्ति मार्ग
मैंने सिखलाया ब्रह्म ज्ञान।
मेरे वेदों का ज्ञान अमर,
मेरे वेदों की ज्योति प्रखर
मानव के मन का अंधकार
क्या कभी सामने सका ठहर?
मेरा स्वर नभ में घहर-घहर,
सागर के जल में छहर-छहर
इस कोने से उस कोने तक
कर सकता जगती सौरभ भय।

झुक नहीं सकते - अटल बिहारी वाजपेयी

टूट सकते हैं मगर हम झुक नहीं सकते |

सत्य का संघर्ष सत्ता से
न्याय लड़ता निरंकुशता से
अंधेरे ने दी चुनौती है
किरण अंतिम अस्त होती है

दीप निष्ठा का लिये निष्कंप
वज्र टूटे या उठे भूकंप
यह बराबर का नहीं है युद्ध
हम निहत्थे, शत्रु है सन्नद्ध
हर तरह के शस्त्र से है सज्ज
और पशुबल हो उठा निर्लज्ज

किन्तु फिर भी जूझने का प्रण
अंगद ने बढ़ाया चरण
प्राण-पण से करेंगे प्रतिकार
समर्पण की माँग अस्वीकार

दाँव पर सब कुछ लगा है, रुक नहीं सकते
टूट सकते हैं मगर हम झुक नहीं सकते |

न दैन्यं न पलायनम्. - अटल बिहारी वाजपेयी

कर्तव्य के पुनीत पथ को 
हमने स्वेद से सींचा है, 
कभी-कभी अपने अश्रु और— 
प्राणों का अर्ध्य भी दिया है। 

किंतु, अपनी ध्येय-यात्रा में— 
हम कभी रुके नहीं हैं। 
किसी चुनौती के सम्मुख 
कभी झुके नहीं हैं। 

आज, 
जब कि राष्ट्र-जीवन की 
समस्त निधियाँ, 
दाँव पर लगी हैं, 
और, 
एक घनीभूत अंधेरा— 
हमारे जीवन के 
सारे आलोक को 
निगल लेना चाहता है; 

हमें ध्येय के लिए 
जीने, जूझने और 
आवश्यकता पड़ने पर— 
मरने के संकल्प को दोहराना है। 

आग्नेय परीक्षा की 
इस घड़ी में— 
आइए, अर्जुन की तरह 
उद्घोष करें : 
‘‘न दैन्यं न पलायनम्।’’

स्वाधीनता के साधना पीठ - अटल बिहारी वाजपेयी

अपने आदर्शों और विश्वासों 
के लिए काम करते-करते, 
मृत्यु का वरण करना 
सदैव ही स्पृहणीय है। 
किन्तु 
वे लोग सचमुच धन्य हैं 
जिन्हें लड़ाई के मैदान में, 
आत्माहुति देने का 
अवसर प्राप्त हुआ है। 
शहीद की मौत मरने 
का सौभाग्य 
सब को नहीं मिला करता। 
जब कोई शासक 
सत्ता के मद में चूर होकर 
या, 
सत्ता हाथ से निकल जाने के भय से 
भयभीत होकर 
व्यक्तिगत स्वाधीनता और स्वाभिमान को 
कुचल देने पर 
आमादा हो जाता है, 
तब 
कारागृह ही स्वाधीनता के 
साधना पीठ बन जाते हैं।

कवि आज सुना वह गान रे -अटल बिहारी वाजपेयी

कवि आज सुना वह गान रे, 
जिससे खुल जाएँ अलस पलक। 
नस–नस में जीवन झंकृत हो, 
हो अंग–अंग में जोश झलक। 

ये - बंधन चिरबंधन 
टूटें – फूटें प्रासाद गगनचुम्बी 
हम मिलकर हर्ष मना डालें, 
हूकें उर की मिट जाएँ सभी। 

यह भूख – भूख सत्यानाशी 
बुझ जाय उदर की जीवन में। 
हम वर्षों से रोते आए 
अब परिवर्तन हो जीवन में। 

क्रंदन – क्रंदन चीत्कार और, 
हाहाकारों से चिर परिचय। 
कुछ क्षण को दूर चला जाए, 
यह वर्षों से दुख का संचय। 

हम ऊब चुके इस जीवन से, 
अब तो विस्फोट मचा देंगे। 
हम धू - धू जलते अंगारे हैं, 
अब तो कुछ कर दिखला देंगे। 

अरे ! हमारी ही हड्डी पर, 
इन दुष्टों ने महल रचाए। 
हमें निरंतर चूस – चूस कर, 
झूम – झूम कर कोष बढ़ाए। 

रोटी – रोटी के टुकड़े को, 
बिलख–बिलखकर लाल मरे हैं। 
इन – मतवाले उन्मत्तों ने, 
लूट – लूट कर गेह भरे हैं। 
पानी फेरा मर्यादा पर, 
मान और अभिमान लुटाया। 
इस जीवन में कैसे आए, 
आने पर भी क्या पाया? 

रोना, भूखों मरना, ठोकर खाना, 
क्या यही हमारा जीवन है? 
हम स्वच्छंद जगत में जन्मे, 
फिर कैसा यह बंधन है? 

मानव स्वामी बने और— 
मानव ही करे गुलामी उसकी। 
किसने है यह नियम बनाया, 
ऐसी है आज्ञा किसकी? 

सब स्वच्छंद यहाँ पर जन्मे, 
और मृत्यु सब पाएँगे। 
फिर यह कैसा बंधन जिसमें, 
मानव पशु से बंध जाएँगे ? 

अरे! हमारी ज्वाला सारे— 
बंधन टूक-टूक कर देगी। 
पीड़ित दलितों के हृदयों में, 
अब न एक भी हूक उठेगी। 

हम दीवाने आज जोश की— 
मदिरा पी उन्मत्त हुए। 
सब में हम उल्लास भरेंगे, 
ज्वाला से संतप्त हुए। 

रे कवि! तू भी स्वरलहरी से, 
आज आग में आहुति दे। 
और वेग से भभक उठें हम, 
हद् – तंत्री झंकृत कर दे।

मैंने जन्म नहीं मांगा था! -अटल बिहारी वाजपेयी

मैंने जन्म नहीं मांगा था, 
किन्तु मरण की मांग करुँगा। 

जाने कितनी बार जिया हूँ, 
जाने कितनी बार मरा हूँ। 
जन्म मरण के फेरे से मैं, 
इतना पहले नहीं डरा हूँ। 

अन्तहीन अंधियार ज्योति की, 
कब तक और तलाश करूँगा। 
मैंने जन्म नहीं माँगा था, 
किन्तु मरण की मांग करूँगा। 

बचपन, यौवन और बुढ़ापा, 
कुछ दशकों में ख़त्म कहानी। 
फिर-फिर जीना, फिर-फिर मरना, 
यह मजबूरी या मनमानी? 

पूर्व जन्म के पूर्व बसी— 
दुनिया का द्वारचार करूँगा। 
मैंने जन्म नहीं मांगा था, 
किन्तु मरण की मांग करूँगा।

स्वतंत्रता दिवस की पुकार - अटल बिहारी वाजपेयी

पन्द्रह अगस्त का दिन कहता - आज़ादी अभी अधूरी है।
सपने सच होने बाक़ी हैं, राखी की शपथ न पूरी है॥ 

जिनकी लाशों पर पग धर कर आजादी भारत में आई। 
वे अब तक हैं खानाबदोश ग़म की काली बदली छाई॥ 

कलकत्ते के फुटपाथों पर जो आंधी-पानी सहते हैं। 
उनसे पूछो, पन्द्रह अगस्त के बारे में क्या कहते हैं॥ 

हिन्दू के नाते उनका दुख सुनते यदि तुम्हें लाज आती। 
तो सीमा के उस पार चलो सभ्यता जहाँ कुचली जाती॥ 

इंसान जहाँ बेचा जाता, ईमान ख़रीदा जाता है। 
इस्लाम सिसकियाँ भरता है,डालर मन में मुस्काता है॥ 

भूखों को गोली नंगों को हथियार पिन्हाए जाते हैं। 
सूखे कण्ठों से जेहादी नारे लगवाए जाते हैं॥ 

लाहौर, कराची, ढाका पर मातम की है काली छाया। 
पख़्तूनों पर, गिलगित पर है ग़मगीन ग़ुलामी का साया॥ 

बस इसीलिए तो कहता हूँ आज़ादी अभी अधूरी है। 
कैसे उल्लास मनाऊँ मैं? थोड़े दिन की मजबूरी है॥ 

दिन दूर नहीं खंडित भारत को पुनः अखंड बनाएँगे। 
गिलगित से गारो पर्वत तक आजादी पर्व मनाएँगे॥ 

उस स्वर्ण दिवस के लिए आज से कमर कसें बलिदान करें। 
जो पाया उसमें खो न जाएँ, जो खोया उसका ध्यान करें॥

आओ फिर से दिया जलाएँ - अटल बिहारी वाजपेयी

आओ फिर से दिया जलाएँ
भरी दुपहरी में अंधियारा
सूरज परछाई से हारा
अंतरतम का नेह निचोड़ें-
बुझी हुई बाती सुलगाएँ।
आओ फिर से दिया जलाएँ

हम पड़ाव को समझे मंज़िल
लक्ष्य हुआ आंखों से ओझल
वतर्मान के मोहजाल में-
आने वाला कल न भुलाएँ।
आओ फिर से दिया जलाएँ।

आहुति बाकी यज्ञ अधूरा
अपनों के विघ्नों ने घेरा
अंतिम जय का वज़्र बनाने-
नव दधीचि हड्डियां गलाएँ।
आओ फिर से दिया जलाएँ

राह कौन सी जाऊँ मैं? - अटल बिहारी वाजपेयी

चौराहे पर लुटता चीर
प्यादे से पिट गया वजीर
चलूँ आखिरी चाल कि बाजी छोड़ विरक्ति सजाऊँ?
राह कौन सी जाऊँ मैं?

सपना जन्मा और मर गया
मधु ऋतु में ही बाग झर गया
तिनके टूटे हुये बटोरूँ या नवसृष्टि सजाऊँ मैं?
राह कौन सी जाऊँ मैं?

दो दिन मिले उधार में
घाटों के व्यापार में
क्षण-क्षण का हिसाब लूँ या निधि शेष लुटाऊँ मैं?
राह कौन सी जाऊँ मैं ?

जो बरसों तक सड़े जेल में /-अटल बिहारी वाजपेयी

जो बरसों तक सड़े जेल में, उनकी याद करें।
जो फाँसी पर चढ़े खेल में, उनकी याद करें।
याद करें काला पानी को,
अंग्रेजों की मनमानी को,
कोल्हू में जुट तेल पेरते,
सावरकर से बलिदानी को।
याद करें बहरे शासन को,
बम से थर्राते आसन को,
भगतसिंह, सुखदेव, राजगुरू
के आत्मोत्सर्ग पावन को।
अन्यायी से लड़े,
दया की मत फरियाद करें।
उनकी याद करें।
बलिदानों की बेला आई,
लोकतंत्र दे रहा दुहाई,
स्वाभिमान से वही जियेगा
जिससे कीमत गई चुकाई
मुक्ति माँगती शक्ति संगठित,
युक्ति सुसंगत, भक्ति अकम्पित,
कृति तेजस्वी, घृति हिमगिरि-सी
मुक्ति माँगती गति अप्रतिहत।
अंतिम विजय सुनिश्चित, पथ में
क्यों अवसाद करें?
उनकी याद करें।

मैं न चुप हूँ न गाता हूँ - अटल बिहारी वाजपेयी

न मैं चुप हूँ न गाता हूँ 

सवेरा है मगर पूरब दिशा में 
घिर रहे बादल 
रूई से धुंधलके में 
मील के पत्थर पड़े घायल 
ठिठके पाँव 
ओझल गाँव 
जड़ता है न गतिमयता 

स्वयं को दूसरों की दृष्टि से 
मैं देख पाता हूं 
न मैं चुप हूँ न गाता हूँ |

समय की सदर साँसों ने 
चिनारों को झुलस डाला, 
मगर हिमपात को देती 
चुनौती एक दुर्ममाला, 

बिखरे नीड़, 
विहँसे चीड़, 
आँसू हैं न मुस्कानें, 
हिमानी झील के तट पर 
अकेला गुनगुनाता हूँ। 
न मैं चुप हूँ न गाता हूँ |

दूध में दरार पड़ गई - अटल बिहारी वाजपेयी

ख़ून क्यों सफ़ेद हो गया?
भेद में अभेद खो गया।
बँट गये शहीद, गीत कट गए,
कलेजे में कटार दड़ गई।
दूध में दरार पड़ गई।

खेतों में बारूदी गंध,
टूट गये नानक के छंद
सतलुज सहम उठी, व्यथित सी बितस्ता है।
वसंत से बहार झड़ गई
दूध में दरार पड़ गई।

अपनी ही छाया से बैर,
गले लगने लगे हैं ग़ैर,
ख़ुदकुशी का रास्ता, तुम्हें वतन का वास्ता।
बात बनाएँ, बिगड़ गई।
दूध में दरार पड़ गई।

भारत जमीन का टुकड़ा नहीं - अटल बिहारी वाजपेयी

भारत जमीन का टुकड़ा नहीं,
जीता जागता राष्ट्रपुरुष है।
हिमालय मस्तक है, कश्मीर किरीट है,
पंजाब और बंगाल दो विशाल कंधे हैं।
पूर्वी और पश्चिमी घाट दो विशाल जंघायें हैं।
कन्याकुमारी इसके चरण हैं, सागर इसके पग पखारता है।
यह चन्दन की भूमि है, अभिनन्दन की भूमि है,
यह तर्पण की भूमि है, यह अर्पण की भूमि है।
इसका कंकर-कंकर शंकर है,
इसका बिन्दु-बिन्दु गंगाजल है।
हम जियेंगे तो इसके लिये
मरेंगे तो इसके लिये।

क़दम मिला कर चलना होगा - अटल बिहारी वाजपेयी

बाधाएँ आती हैं आएँ
घिरें प्रलय की घोर घटाएँ,
पावों के नीचे अंगारे,
सिर पर बरसें यदि ज्वालाएँ,
निज हाथों में हँसते-हँसते,
आग लगाकर जलना होगा।
क़दम मिलाकर चलना होगा।
हास्य-रूदन में, तूफ़ानों में,
अगर असंख्यक बलिदानों में,
उद्यानों में, वीरानों में,
अपमानों में, सम्मानों में,
उन्नत मस्तक, उभरा सीना,
पीड़ाओं में पलना होगा।
क़दम मिलाकर चलना होगा।
उजियारे में, अंधकार में,
कल कहार में, बीच धार में,
घोर घृणा में, पूत प्यार में,
क्षणिक जीत में, दीर्घ हार में,
जीवन के शत-शत आकर्षक,
अरमानों को ढलना होगा।
क़दम मिलाकर चलना होगा।
सम्मुख फैला अगर ध्येय पथ,
प्रगति चिरंतन कैसा इति अब,
सुस्मित हर्षित कैसा श्रम श्लथ,
असफल, सफल समान मनोरथ,
सब कुछ देकर कुछ न मांगते,
पावस बनकर ढ़लना होगा।
क़दम मिलाकर चलना होगा।
कुछ काँटों से सज्जित जीवन,
प्रखर प्यार से वंचित यौवन,
नीरवता से मुखरित मधुबन,
परहित अर्पित अपना तन-मन,
जीवन को शत-शत आहुति में,
जलना होगा, गलना होगा।
क़दम मिलाकर चलना होगा।

मुझको सरकार बनाने दो - अल्हड़ बीकानेरी

जो बुढ्ढे खूसट नेता हैं, उनको खड्डे में जाने दो।
बस एक बार, बस एक बार मुझको सरकार बनाने दो।

मेरे भाषण के डंडे से
भागेगा भूत गरीबी का।
मेरे वक्तव्य सुनें तो झगडा
मिटे मियां और बीवी का।

मेरे आश्वासन के टानिक का
एक डोज़ मिल जाए अगर,
चंदगी राम को करे चित्त
पेशेंट पुरानी टी बी का।

मरियल सी जनता को मीठे, वादों का जूस पिलाने दो,
बस एक बार, बस एक बार, मुझको सरकार बनाने दो।

जो कत्ल किसी का कर देगा
मैं उसको बरी करा दूँगा,
हर घिसी पिटी हीरोइन कि
प्लास्टिक सर्जरी करा दूँगा;

लडके लडकी और लैक्चरार
सब फिल्मी गाने गाएंगे,
हर कालेज में सब्जैक्ट फिल्म
का कंपल्सरी करा दूँगा।

हिस्ट्री और बीज गणित जैसे विषयों पर बैन लगाने दो,
बस एक बार, बस एक बार, मुझको सरकार बनाने दो।

जो बिल्कुल फक्कड हैं, उनको
राशन उधार तुलवा दूँगा,
जो लोग पियक्कड हैं, उनके
घर में ठेके खुलवा दूँगा;

सरकारी अस्पताल में जिस
रोगी को मिल न सका बिस्तर,
घर उसकी नब्ज़ छूटते ही
मैं एंबुलैंस भिजवा दूँगा।

मैं जन-सेवक हूँ, मुझको भी, थोडा सा पुण्य कमाने दो,
बस एक बार, बस एक बार, मुझको सरकार बनाने दो।

श्रोता आपस में मरें कटें
कवियों में फूट नहीं होगी,
कवि सम्मेलन में कभी, किसी
की कविता हूट नहीं होगी;

कवि के प्रत्येक शब्द पर जो
तालियाँ न खुलकर बजा सकें,
ऐसे मनहूसों को, कविता
सुनने की छूट नहीं होगी।

कवि की हूटिंग करने वालों पर, हूटिंग टैक्स लगाने दो,
बस एक बार, बस एक बार, मुझको सरकार बनाने दो।

ठग और मुनाफाखोरों की
घेराबंदी करवा दूँगा,
सोना तुरंत गिर जाएगा
चाँदी मंदी करवा दूँगा;

मैं पल भर में सुलझा दूँगा
परिवार नियोजन का पचडा,
शादी से पहले हर दूल्हे
की नसबंदी करवा दूँगा।

होकर बेधडक मनाएंगे फिर हनीमून दीवाने दो,
बस एक बार, बस एक बार, मुझको सरकार बनाने दो।
बस एक बार, बस एक बार, मुझको सरकार बनाने दो।