रविवार, 13 सितंबर 2015

हृदय का मधुर भार - रामचंद्र शुक्ल

हृदय, क्यों लाद लिया यह भार,
किसी देश की किसी काल की छाया का भंडार,
कहाँ लिए जाता हैं, मुझको यह जीवन-विस्तार।

उठते पैर नहीं हैं मेरे, झुक-झुक बारंबार,
झाँका करता हूँ मैं, तेरे भीतर दृष्टि पसार।

अंकित जहाँ मधुरता के हैं, वे अतीत आकार,
जिनके बीच प्रथम उमड़ी थी, जीवन की यह धार,
लगी रहेगी ताक-झाँक यह सब दिन इसी प्रकार।

लिपटा था मधुलेप कहाँ का ऐसा अमित अपार,
उन रूपों में चिपका, जिनकी छाया तक का तार।
संचित हैं, जिन रूपों की यह छाया जीवन-सार,
उनके कुछ अवशेष मिलेंगे बाहर फिर दो-चार।
आशा पर बस, इसी तरह चलता हूँ, हे संसार,
तेरे इन रूख रूपों के कड़वेपन की झार।

फूट - रामचंद्र शुक्ल

अरे फूट! क्या कहीं जगत में ठाम नहीं तू पाती।
पैर पसार यहीं पर जो तू आठो पहर बिताती ।।
 
कई सहस्र वर्ष से हैं तू भारत भुव पर छाई।
मनमानी इतने दिन करके अब भी नहीं अघाई ।।
 
तेरी लीला गाते हैं हम निशि दिन भारतवासी।
तेरा अतुल प्रताप सोचकर होती हमें उदासी ।।
 
पकड़ हाथ लक्ष्मी का तूने सिन्धु पार पहुँचाया।
सरस्वती का रंग उखाड़ा सारा जमा जमाया ।।
 
कलह द्वेष अपने प्रिय अनुचर लाकर यहाँ बसाए।
हाट बाट प्रसाद कुटी में डेरे इनके छाए ।।
 
फैलाई जब आर्य्य जाति ने विद्या बल की बेली।
गर्व चूर करने को तब तू गई यहाँ पर ठेली ।।
 
अब तो साध चुकी वह कारज विपति बीज बहु बोए।
पिसकर चूर-चूर हम हो तब चूर मोह में सोए ।।
 
घर घर फोड़ चुकी जब तब तू बन्धु बन्धु से फोड़े।
अब तो हैं मिट्टी के ढेले जिन्हें मेघ ने छोड़े ।।
 
फोड़ फाड़ उनको ही बस अब चारों ओर उड़ाओ।
भूखे भारतवासी जग को उनकी धूल फँकाओ ।।
 
 
जब जब चाहा उठें सहारा लेकर नींद निवारें।
ईधर उधर कुछ अंग हिलाकर सिर से संकट टारें ।।
 
तब तब तुमने गर्ज्जन करके विकट रूप दिखलाया।
किया ढकेल किनारे ज्यों का त्यों फिर हमें गिराया ।।
 
ब्रिटिश जाति के न्याय नीति की मची धूम जब भारी।
सुख के स्वप्न दिखाई देने लगे हमें दुखहारी ।।
 
उठे चौंक कर बन्धु कई जो थे सचेत औ ज्ञानी।
मिलकर यही बिचारा रोवैं अपनी रामकहानी ।।
 
ब्रिटिश न्याय की अनल शिखा को अपनी ओर घुमावें।
जिसमें पड़कर सभी हमारे दुख दरिद्र जल जावें ।।
 
फिर से उस भूतल के ऊपर हम भी मनुज कहावें।
परम प्रबल अंग्रेज जाति का प्रलय तलक यश गावें ।।
 
दादा भाई और अयोध्यानाथ सुरेन्द्र सयाने।
देश दशा को खोल खोल तब सबको लगे सुझाने ।।
 
मेहता, माधव, दत्ता, घोष का घोष देश में छाया।
आँख खोल हम लगे चेतने अपना और पराया ।।
 
यह प्रतिवर्ष सभा जब जमकर लगी पुकार मचाने।
कई क्रूरता के कृमि शासक उसको उठे दबाने ।।
 
जो अनुचित अधिकार भोग के लोलुप अत्याचारी।
जीवों पर आत जमाने में जिनको सुख भारी ।।
 
लोग यत्न करते जिसमें यह दशा यथार्थ हमारी।
प्रकट न होने पावे जग में रहे यही क्रम जारी ।।
 
 
किंतु आज बाईस वर्ष तक कितने झोंके खाती।
अन्यायी को लज्जित करती न्याय छटा छहराती ।।
 
यह जातीय सभा हम सबको समय ठेलती आई।
हाय फूट! तेरे आनन में वह भी आज समाई ।।
 
पहिली धौल कसी काशी में किन्तु फोड़ नहिं पाया।
कलकत्तो में जाकर तूने कड़ा प्रहार जमाया ।।
 
हुए फूटकर दो दल उसके चौंका देश हमारा।
किन्तु बिगड़ता तब तक कुछ भी हमने नहीं बिचारा ।।
 
यही समझते थे दोनों दल पृथक् पंथ अनुयायी।
होकर भी उद्देश्य हानि को सह न सकैंगे, भाई! ।।
 
किन्तु देख सूरत की सूरत भगे भाव यह सारे।
आशंका तब तरह-तरह की मन में उठी हमारे ।।
 
अब पुकार भारत के दुख की देगी कहाँ सुनाई?
कहाँ फिरेगी न्याय नीति के बल की प्रबल दुहाई? ।।
 
दश सहस्र भारत सुपुत्र मिल कहाँ प्रेम प्रगटैंगे?
गर्व सहित गर्जन करके निज गौरव गान करैंगे ।।
 
अब तो कर कुछ कृपा कि जिससे एक फिर सभी होवैं।
अपने मन की मैल देश की अश्रु धार में धोवैं ।।
 
जो जो सिर पर बीती उसको जी से बेगि भुलावें।
मौन मार निज मातृभूमि की सेवा में लग जावें ।।

हमारी हिन्दी - रामचंद्र शुक्ल


मन के धन वे भाव हमारे हैं खरे।
जोड़ जोड़ कर जिन्हें पूर्वजों ने भरे ।।
उस भाषा में जो हैं इस स्थान की।
उस हिंदी में जो हैं हिन्दुस्तान की ।।
उसमें जो कुछ रहेगा वही हमारे काम का।
उससे ही होगा हमें गौरव अपने नाम का ।।

'हम' को करके व्यक्त, प्रथम संसार से।
हुई जोड़ने हेतु सूत्रा जो प्यार से ।।
जिसे थाम हम हिले मिले दो चार से।
हुए मुक्त हम रोने के कुछ भार से ।।
उसे छोड़कर और के बल उठ सकते हैं नहीं।
पडे रहेंगे, पता भी नहीं लगेगा फिर कहीं ।।

पहले पहल पुकारा था जिसने जहाँ।
जिन नामों से जननि प्रकृति को, वह वहाँ ।।
सदा बोलती उनसे ही, यह रीति हैं।
हमको भी सब भाँति उन्हीं से प्रीति हैं ।।
जिस स्वर में हमने सुना प्रथम प्रकृति की तान को।
वही सदा से प्रिय हमें और हमारे कान को ।।
 

भोले भाले देश भाइयों से जरा।
भिन्न लगें, यह भाव अभी जिनमें भरा ।।
जकड़ मोह से गए, अकड़ कर जो तने।
बानी बाना बदल बहुत बिगड़े, बने ।।
धरते नाना रूप जो, बोली अद्भुत बोलते।
कभी न कपट-कपाट को कठिन कंठ के खोलते ।।

अपनों से हो और जिधर वे जा बहे।
सिर ऊँचे निज नहीं, पैर पर पा रहे ।।
इतने पर भी बने चले जाते बड़े।
उनसे जो हैं आस पास उनके पडे ।।
अपने को भी जो भला अपना सकते हैं नहीं।
उनसे आशा कौन सी की जा सकती हैं कहीं? ।।

अपना जब हम भूल भूलते आपको,
हमें भूलता जगत हटाता पाप को ।।
अपनी भाषा से बढ़कर अपना कहाँ?
जीना जिसके बिना न जीना हैं यहाँ ।।
हम भी कोई थे कभी, अब भी कोई हैं कहीं।
यह निज वाणी-बल बिना विदित बात होगी नहीं ।।

देशद्रोही की दुत्कार - रामचंद्र शुक्ल


रे दुष्ट, पामर, पिशाच, कृतघ्न, नीच।
क्यों तू गिरा उदर से इस भूमि बीच ।।
क्यों देश ने अधम स्वागत हेतु तेरे।
आनन्द उत्सव उपाय रचे घनेरे ।।

सोया जहाँ जननि-आ ( निशंक होके।
माँगा जहाँ मधुर क्षीर अधीर होके ।।
थोड़ी शरीर सुध भी न जहाँ रही हैं।
रे स्वार्थ-अन्ध यह भूमि वही, वही हैं ।।

जो भूमि टेक कर के बल रेंगता था।
हाँ क्या उसे न तुझे से कुछ आसरा था ।।
जो धूल डाल सिर ऊपर मोद माना।
क्यों आज तू बन रहा उससे बिगाना ।।

तू पेट पाल, मन मंगल मानता हैं।
सेवा समस्त सुख की जड़ जानता हैं ।।
खोटी, खरी खटकती न तुझे वहीं की।
पाता जहाँ महक मोदक औ मही की ।।
 
तेरे समक्ष पर अन्न विहीन दीन।
चिन्ता-विलीन अति क्षीण महा मलीन।।
जो ये अनेक प्रियबन्धु तुझे दिखाते।
लज्जा दया न कुछ भी तुझको सिखाते? ।।

रे स्वार्थ-अन्ध, मतिमंद कुमार्गगामी!
क्यों देश से विमुख हो सजता सलामी?
कर्तव्य शून्य हल्के कर को उठाता।
दुर्भाग्य-भार-हत भाल भले झुकाता ।।

किसके सुअन्न कण ने इस कूर काया।
को पाल पोस पग के बल हैं उठाया? ।।
किसका सुधा सरित शीतल स्वच्छ नीर।
हैं सींचता रुधिर तो चलता शरीर? ।।

किसका प्रसूनरज लेकर मंद वायु।
देती प्रतिक्षण पसार नवीन आयु? ।।
किसका अभंग कल कोकिल कंठ गान।
होता प्रभात प्रति तू सुन सावधान? ।।

स्वातंत्रय की विमल ज्योति जगी जहाँ हैं।
आनन्द की अतुल राशि लगी जहाँ हैं ।।
जा देख! स्वत्व पर लोग जमे जहाँ हैं।
तेरे समान नर क्या करते वहाँ हैं ।।
 
सर्वस्व छोड़ तन के सुख भूल सारे।
जो हैं स्वदेश-हित का व्रत चित्ता धारे ।।
न स्वप्न में कनक हैं जिनको लुभाता।
मानपमान पथ से न जिन्हें डिगाता ।।

तेरे यथार्थ हित हेतु अनेक बार।
जो हैं सदैव करते रहते पुकार ।।
ऐसे सुपूज्य जन से रख द्रोह भाव।
तू नित्य चक्र रच के चलता कुदाव ।।

जा दूर हो अधम सन्मुख से हमारे।
हैं पाप पुंज तुव पूरित अंग सारे ।।
जो देश से न हट तो हृद देश से ही।
देते निकाल हम आज तुझे भले ही ।।
 

वसन्त पथिक - रामचंद्र शुक्ल

देखो पहाड़ी से उतरता पथिक हैं जो इस घड़ी,
हैं अरुण पथ पर दूर तक जिसकी बड़ी छाया पड़ी।
छिपकर निकलता टहनियों के बीच से झुकता कभी,
और फिर उलझकर झाड़ियों में घूमकर रुकता कभी।
आकर हुआ नीचे खड़ा, अब सामने उसके चली,
फैली हुई कुछ दूर तक वन की घनी रम्य स्थली।

कचनार कलियों से लदे फूले समाते हैं नहीं,
नंगे पलासों पर पड़ी हैं राग की छीटें कहीं।
ऊँची कँटीली झाड़ियाँ भी पत्तियों से, हैं मढ़ी,
हल्की हरी, अब तक न जिन पर श्यामता कुछ भी चढ़ी।
सुन्दर दलों के बीच में काँटे छिपे हैं, थामना!
जैसे भलों के संग में खोटे जनों की कामना। 
पौधे जिन्हें पशु नोचकर सब ओर ठूठे कर गए,
वे भी सँभलकर फेंकते हैं फिर हरे कल्ले नए।

वे पेड़ जिनपर बैठते कौवे लजाते थे कभी,
कैसे चहकते आज हैं उन पर जमे पक्षी सभी!
कटते हुए अब खेत भूरे सामने आने लगे,
जिनमें गिरे कुछ भाग से ही भाग चिड़ियों के जगे।
सूहे वसन्ती रक्ष् के चल आ सी मृदुगामिनी,
हैं डोलती उस भूमि की भूरी प्रभा में भामिनी।

लिपटे हुए द्रुम जाल में वह झाँकते हैं झोपडे,
जो अन्न के शुभ सत्रा-से सब प्राणियों के हित खडे।
जो शान्ति औ सन्तोष के सुख से सदा रहते भरे,
मिलता जहाँ विश्राम हैं दिन के परिश्रम के परे।
आकर समीर प्रभात ही वन खेत से सौरभ लिए,
हैं खेलता प्रति द्वार पर हिम बिन्दु को चद्बचल किए।

भोली लजीली नारियों से नित्य ही आकर जहाँ
हैं पूछ जाता आड़ में छिपकर पपीहा “पी कहाँ?”
छेड़ा पथिक को एक ने हँसकर “उधर जाते कहाँ?
वह राह टेढ़ी हैं।” कहाँ उसने “नहीं चिन्ता यहाँ।”

कब घेर सकती हैं उसे चिन्ता भला निज छेम की,
जिसके हृदय में जग रही हैं ज्योति पावन प्रेम की?
छायी गगन पर धूल हैं निखरी निरी निर्मल मही,
मानो प्रकृति के अंग पर मंजुल मृदुलता ढल रही।

देखो जहाँ अमराइयाँ हैं मौरकर उमड़ी हुई,
कंचनमयी पीली-प्रभा सौरभ लिये पड़ती चुई।
यह आम की मृदु मंजरी अब मन्द मारुत से हिली;
कूकीं कई मिल कोयलें, टूटी पथिक-ध्यानावली।
तब देख चारों ओर अपने निज हृदय की टोह ली,
पाई नहीं आमोद के संचार को उसमें गली।

चलता रहा चुपचाप; चट फिर बात यह उसने कही
“अधिक हैं रहे सन्तुष्ट हो सुषमा निरख जो आप ही।
सुनता रहे ध्वनि मधुर पर मन में न अपने यह गुने,
हा! पास में कोई नहीं हैं और जो देखे सुने।
वे धन्य हैं पर-ध्यान में जो लीन ऐसे हो रहे,
जो दो हृदय के योग में कुछ भूल अपने को रहे। 
बाँटे किसी सुख को सदा जो ताक में रहते इसी,
जिनके वदन पर हास हैं प्रतिबिम्ब मानस का किसी।”

कोमल मधुर स्वर में किसी ने पूछा वहीं कुछ झोंक से,
'बातें' कहाँ की कर गये? आते कहो किस लोक से?”
देखा पथिक ने चौंककर, पाया किसी को पर नहीं,
अचरज दबे पड़ने लगे पग मन्द मारग में वहीं।
बोला उझककर “पवन तूने कहाँ से ये स्वर छुए,
अथवा हृदय से गँजकर ये आप ही बाहर हुए।”
इस बीच नीचे कुंज से फुर से उड़ी चिड़ियाँ कई,
सँग में लगी कुछ दूर उनके दृष्टि भी उसकी गई।

देखा पथिक ने दूर कुछ टीले सरोवर के बडे,
हैं पेड़ चारों ओर जिन पर आम जामुन के खडे।
हिलकर बुलाते प्रेम से प्रति दिन हरे पत्तो जहाँ,
“आओ पथिक, विश्राम लो छिन छाँह में बसकर यहाँ।”
हैं एक कोने पर झलकता श्वेत मन्दिर भी वही,
हारे पथिक की दृष्टि हैं उस ओर ही अब लग रही।

बढ़ने लगा उस ओर अब; आई वही ध्वनि फिर,”रहो!
लेने चले विश्राम का सुख तुम अकेले क्यों कहो?”

यद्यपि घने सन्देह में थे भाव सब उसके अड़े, 
मुँह से अचानक शब्द ये उसके निकल ही तो पडे।
“बस में नहीं यह सुख उठाकर हम किसी के कर धरें,
पथ के कठिन श्रम से न कुछ जब तक उसे पीड़ितकरें।”

विस्मय-भरे मन से छलकती कल्पना छन छन नयी,
'छाया यहाँ छलती मुझे, यह भूमि हैं मायामयी'। 

यह सोचते ही सामने आया रुचिर मन्दिर वही,
जिसके शिखर पर डाल पीपल की पसरकर झुक रही।

प्रतिमा पुनीत विराजती भीतर भवानीनाथ की,
आसन अचल पर हैं टिकी बाहर सवारी साथ की। 

करके प्रणाम, विनीत स्वर से पथिक यह कहकर टला,
“क्या जान सकते हैं प्रभो, माया तुम्हारी हम भला?”

देखा सरोवर तीर निर्मल नीर मन्द हिलोर हैं;
जिसमें पडी वट विटप-छाया काँपती इक ओर हैं।
अति मन्द गति से ढुर रही हैं पाँति बगलों की कहीं,
बैठी कहीं दो चार चिड़ियाँ पंख को खुजला रहीं।

झुककर दु्रमों की डालियाँ जल के निकट तक छा रहीं,
जिनसे लिपट अनुराग से फूली लता लहरा रहीं।

सौरभ-सनी, जलकण मिली मृदु वायु चलती हो जहाँ,
होवे न क्यों फिर पथिक की काया शिथिल शीतल वहाँ?
उतरा पथिक जल के निकट, फिर हाथ मुँह धोकर वहीं,
बैठा घने निज ध्यान में, तन हैं कहीं और मन कहीं।

हिलकर सलिल अब थिर हुआ, उसमें दिखायी यह पड़ी,
किस मोहिनी प्रिय मूर्ति की छायामयी आकृति खड़ी।
ताका उलटकर ज्यों पथिक ने खिलखिलाकर हँस पड़ा,
चंचल नवेली कामिनी जो पास थी पीछे खड़ा।

आभा अधर पर मन्द सी मुसकान की अब रह गई,
पलकें ढली पड़ती, मधुरता ढालती मुख पर नई।

पीले वसन पर लहरती अलकें कपोलों से छुई,
उस कुसुम कोमल अंग से छवि छूटकर पड़ती चुई।

जाने नहीं किस धार में सुध बुध पथिक की बह गई,
बीते अचल दृग से उसे तो ताकते ही छन कई।

कहता हुआ यह उठा पड़ा फिर,”हे प्रिये मम तुम कहाँ।”
हँसकर मृदुल स्वर से बढ़ी कहती हुई “हो तुम जहाँ।”
उमडे हुए अनुराग में आतुर मिले दोनों वहीं,
फूले हुए मन अंग में उनके समाते हैं नहीं। 
बैठे वहीं मिलकर परस्पर, कामिनी ने तब कहा
हमको यहाँ पर देखकर होगा तुम्हें अचरज महा,
चलकर यहाँ से दूर पर कुछ एक सुन्दर ग्राम हैं,
जिसमें हमारी पूज्यतम मातामही का धाम हैं।

ठहरी हुई हैं आजकल हम साथ जननी के वहाँ,
हम नित्य दर्शन हेतु शिव के नियम से आतीं यहाँ।
यह तो बताओ थे कहाँ, यह रीति सीखी हैं भली,
जब से गये घर से, नहीं तब से हमारी खोज ली।
हमने यही समझा, जगत की अन्त करके सब कला,
होकर बडे बूढे फ़िरोगे; क्या किया तुमने भला।”
छोड़ो इन्हें ये प्रेम से जी खोलकर बोलें मिलें,
पाठक, यहाँ क्या काम अब हम आप अपनी राह लें।।