मंगलवार, 15 दिसंबर 2015

जहाँ तक गया कारवान-ए-ख़याल - अंजुम रूमानी

जहाँ तक गया कारवान-ए-ख़याल
न था कुछ ब-जुज़ हसरत-ए-पाएमाल

मुझे तेरा तुझ को है मेरा ख़याल
मगर ज़िंदगी फिर भी हैं ख़स्ता-हाल

जहाँ तक है दैर ओ हरम का सवाल
रहें चुप तो मुश्किल कहें तो मुहाल

तेरी काएनात एक हैरत-कदा
शनासा मगर अजनबी ख़द-ओ-ख़ाल

मेरी काएनात एक ज़ख़्म-ए-कोहन
मुक़द्दर में जिस के नहीं इंदिमाल

नई ज़िंदगी के नए मकर ओ फ़न
नए आदमी की नई चाल-ढाल

हुए रूख़्सत अंजुम सहर के क़रीब
न देखा गया शायद अपना मआल

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