मंगलवार, 1 दिसंबर 2015

कौन थकान हरे - गिरिजाकुमार माथुर

कौन थकान हरे जीवन की ।
     बीत गया संगीत प्‍यार का,
     रूठ गई कविता भी मन की ।

वंशी में अब नींद भरी है,
स्‍वर पर पीत साँझ उतरी है
बुझती जाती गूँज आखरी —
इस उदास वन-पथ के ऊपर
पतझर की छाया गहरी है,

     अब सपनों में शेष रह गईं,
     सुधियाँ उस चंदन के वन की ।

रात हुई पंछी घर आए,
पथ के सारे स्‍वर सकुचाए,
म्‍लान दिया बत्‍ती की बेला —
थके प्रवासी की आँखों में
आँसू आ-आ कर कुम्‍हलाए,

     कहीं बहुत ही दूर उनींदी
     झाँझ बज रही है पूजन की
     कौन थकान हरे जीवन की ।

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