शनिवार, 28 नवंबर 2015

प्रतिध्वनि - रमापति शुक्ल

मेरे मुँह से जो कुछ निकला
कौन उसे दोहराता है?
कहाँ छिपा है? किस कोने में?
क्यों न सामने आता है?
‘कौन’? कहूँ तो ‘कौन’? कहे
‘मैं’ कहने पर मैं कहता है
डाँटूँ तो वह डाँट सुनाता,
बात न कोई सहता है!
ओ हो, मैंने अब पहचाना,
रही प्रतिध्वनि यह मेरी!
जो बोलूँगा दोहराएगी,
बिना किए कुछ भी देरी।
इससे अब मैं मीठी-मीठी,
बातें मुँह से बोलूँगा!
कड़वी बातें कहने को अब
कभी नहीं मुँह खोलूँगा!

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