शनिवार, 28 नवंबर 2015

बढे़ चलो, बढे़ चलो - सोहनलाल द्विवेदी

न हाथ एक शस्त्र हो, 
न हाथ एक अस्त्र हो, 
न अन्न वीर वस्त्र हो, 
हटो नहीं, डरो नहीं, बढ़े चलो, बढ़े चलो । 

रहे समक्ष हिम-शिखर, 
तुम्हारा प्रण उठे निखर, 
भले ही जाए जन बिखर, 
रुको नहीं, झुको नहीं, बढ़े चलो, बढ़े चलो ।

घटा घिरी अटूट हो, 
अधर में कालकूट हो, 
वही सुधा का घूंट हो, 
जिये चलो, मरे चलो, बढ़े चलो, बढ़े चलो ।

गगन उगलता आग हो, 
छिड़ा मरण का राग हो,
लहू का अपने फाग हो, 
अड़ो वहीं, गड़ो वहीं, बढ़े चलो, बढ़े चलो ।

चलो नई मिसाल हो, 
जलो नई मिसाल हो,
बढो़ नया कमाल हो,
झुको नही, रूको नही, बढ़े चलो, बढ़े चलो ।

अशेष रक्त तोल दो, 
स्वतंत्रता का मोल दो, 
कड़ी युगों की खोल दो, 
डरो नही, मरो नहीं, बढ़े चलो, बढ़े चलो ।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें