रविवार, 29 नवंबर 2015

कहाँ पै आ गए हैं हम - ओमप्रकाश चतुर्वेदी 'पराग'

न ज़िन्दगी विमुक्त है, न मृत्यु कसाव है
कहाँ पै आ गए हैं हम, यह कौन-सा पड़ाव है

न ठौर है न ठाँव है, न शहर है न गाँव है
न धूप है न छाँव है
यह दृष्टि का दुराव है, कि सृष्टि का स्वभाव है

न शत्रु है न मीत है, न हार है न जीत है
न गद्य है न गीत है
न प्रीति की प्रतीति है, न द्वेष का दबाव है

न हास है न रोष है, न दिव्यता न दोष है
न रिक्तता न कोष है
बुझी हुई समृद्धि है, खिला हुआ अभाव है

न भोर है न रैन है, न दर्द है न चैन है
न मौन है न बैन है
यह प्यास का प्रपंच है, कि तृप्ति का तनाव है

न दूर है न संग है, न पूर्ण है न भंग है
अनंग है न अंग है
अरूप रूप चित्र का, विचित्र रख रखाव है

न धार है न कूल है, न शूल है न फूल है
न तथ्य है न भूल है
असत्य है न सत्य है, विशिष्ट द्वैतभाव है
कहाँ पै आ गए हैं हम, यह कौन-सा पड़ाव है।

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