बुधवार, 7 अक्तूबर 2015

मुझे अकेला ही रहने दो - गोपालशरण सिंह

रहने दो मुझको निर्जन में
काँटों को चुभने दो तन में
मैं न चाहता सुख जीवन में
करो न चिंता मेरी मन में
घोर यातना ही सहने दो
मुझे अकेला ही रहने दो !

मैं न चाहता हार बनूँ मैं 
या कि प्रेम उपहार बनूँ मैं
या कि शीश-शृंगार बनूँ मैं
मैं हूँ फूल मुझे जीवन की
सरिता में ही तुम बहने दो
मुझे अकेला ही रहने दो !

नहीं चाहता हूँ मैं आदर
हेम और रत्नों का सागर
नहीं चाहता हूँ कोई वर
मत रोको इस निर्मम जग को
जो जी में आए कहने दो
मुझे अकेला ही रहने दो !

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें