सोमवार, 7 सितंबर 2015

कबीर दोहावली -भाग ९

दाया कौन पर कीजिये, का पर निर्दय होय । 
सांई के सब जीव है, कीरी कुंजर दोय ॥ 81 ॥ 

जब मैं था तब गुरु नहीं, अब गुरु हैं मैं नाय । 
प्रेम गली अति साँकरी, ता में दो न समाय ॥ 82 ॥ 

छिन ही चढ़े छिन ही उतरे, सो तो प्रेम न होय । 
अघट प्रेम पिंजरे बसे, प्रेम कहावे सोय ॥ 83 ॥ 

जहाँ काम तहाँ नाम नहिं, जहाँ नाम नहिं वहाँ काम । 
दोनों कबहूँ नहिं मिले, रवि रजनी इक धाम ॥ 84 ॥ 

कबीरा धीरज के धरे, हाथी मन भर खाय । 
टूट एक के कारने, स्वान घरै घर जाय ॥ 85 ॥ 

ऊँचे पानी न टिके, नीचे ही ठहराय । 
नीचा हो सो भरिए पिए, ऊँचा प्यासा जाय ॥ 86 ॥ 

सबते लघुताई भली, लघुता ते सब होय । 
जौसे दूज का चन्द्रमा, शीश नवे सब कोय ॥ 87 ॥ 

संत ही में सत बांटई, रोटी में ते टूक । 
कहे कबीर ता दास को, कबहूँ न आवे चूक ॥ 88 ॥ 

मार्ग चलते जो गिरा, ताकों नाहि दोष । 
यह कबिरा बैठा रहे, तो सिर करड़े दोष ॥ 89 ॥ 

जब ही नाम ह्रदय धरयो, भयो पाप का नाश । 
मानो चिनगी अग्नि की, परि पुरानी घास ॥ 90 ॥ 

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