शुक्रवार, 11 सितंबर 2015

दुखदर्द - अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

लगी है अगर आँख मेरी।
किसलिए आँख नहीं लगती।
किस तरह आते हैं सपने।
रात भर जब मैं हूँ जगती।1।

उजाला अंधा करता है।
मेंह में जलती रहती हूँ।
नहीं खुलता है मुँह खोले।
न जाने क्या क्या कहती हूँ।2।

आँख में फिरता है कोई।
मगर मैं देख नहीं पाती।
बिना छेदे ही औरों के।
बे तरह छिदती है छाती।3।

और की ओर देखती क्यों।
कहाती है जो सत धंधी।
लाख हा आँखों के होते।
बनी रहती है जो अंधी।4।

हो गया चूर चैन चित का।
चंद से अंगारे बरसे।
देह से चिनगारी निकली।
चाँदनी चंदन के परसे।5।

लगी जलने सारी दुनिया।
आग जी में लग जाने से।
हवा हो गया हमारा सुख।
घटा दुख की घिर आने से।6।

आस पर ओस पड़ी है तो।
आस क्यों फूल नहीं बनती।
क्यों नहीं काली छाया पर।
चाँदनी पत्तों से छनती।7।

मोतियों की लड़ियाँ टूटीं।
हाथ का पारस खोने से।
दिल जला बहने से पानी।
गुल खिला काँटा बोने से।8।

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