गुरुवार, 10 सितंबर 2015

कबीर दोहावली -भाग ३९

॥ संगति पर दोहे ॥ 


कबीरा संगत साधु की, नित प्रति कीर्ज जाय । 
दुरमति दूर बहावसी, देशी सुमति बताय ॥ 666 ॥ 

एक घड़ी आधी घड़ी, आधी में पुनि आध । 
कबीर संगत साधु की, करै कोटि अपराध ॥ 667 ॥ 

कबिरा संगति साधु की, जो करि जाने कोय । 
सकल बिरछ चन्दन भये, बांस न चन्दन होय ॥ 668 ॥ 

मन दिया कहुँ और ही, तन साधुन के संग । 
कहैं कबीर कोरी गजी, कैसे लागै रंग ॥ 669 ॥ 

साधुन के सतसंग से, थर-थर काँपे देह । 
कबहुँ भाव कुभाव ते, जनि मिटि जाय सनेह ॥ 670 ॥ 

साखी शब्द बहुतै सुना, मिटा न मन का दाग । 
संगति सो सुधरा नहीं, ताका बड़ा अभाग ॥ 671 ॥ 

साध संग अन्तर पड़े, यह मति कबहु न होय । 
कहैं कबीर तिहु लोक में, सुखी न देखा कोय ॥ 672 ॥ 

गिरिये परबत सिखर ते, परिये धरिन मंझार । 
मूरख मित्र न कीजिये, बूड़ो काली धार ॥ 673 ॥ 

संत कबीर गुरु के देश में, बसि जावै जो कोय । 
कागा ते हंसा बनै, जाति बरन कुछ खोय ॥ 674 ॥ 

भुवंगम बास न बेधई, चन्दन दोष न लाय । 
सब अंग तो विष सों भरा, अमृत कहाँ समाय ॥ 675 ॥ 

तोहि पीर जो प्रेम की, पाका सेती खेल । 
काची सरसों पेरिकै, खरी भया न तेल ॥ 676 ॥ 

काचा सेती मति मिलै, पाका सेती बान । 
काचा सेती मिलत ही, है तन धन की हान ॥ 677 ॥ 

कोयला भी हो ऊजला, जरि बरि है जो सेव । 
मूरख होय न ऊजला, ज्यों कालर का खेत ॥ 678 ॥ 

मूरख को समुझावते, ज्ञान गाँठि का जाय । 
कोयला होय न ऊजला, सौ मन साबुन लाय ॥ 679 ॥ 

ज्ञानी को ज्ञानी मिलै, रस की लूटम लूट । 
ज्ञानी को आनी मिलै, हौवै माथा कूट ॥ 680॥

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें