मंगलवार, 8 सितंबर 2015

कबीर दोहावली -भाग ३२

बिन सतगुरु उपदेश, सुर नर मुनि नहिं निस्तरे । 
ब्रह्मा-विष्णु, महेश और सकल जिव को गिनै ॥ 476 ॥ 

केते पढ़ि गुनि पचि भुए, योग यज्ञ तप लाय । 
बिन सतगुरु पावै नहीं, कोटिन करे उपाय ॥ 477 ॥ 

डूबा औघट न तरै, मोहिं अंदेशा होय । 
लोभ नदी की धार में, कहा पड़ो नर सोइ ॥ 478 ॥ 

सतगुरु खोजो सन्त, जोव काज को चाहहु । 
मेटो भव को अंक, आवा गवन निवारहु ॥ 479 ॥ 

करहु छोड़ कुल लाज, जो सतगुरु उपदेश है । 
होये सब जिव काज, निश्चय करि परतीत करू ॥ 480 ॥ 

यह सतगुरु उपदेश है, जो मन माने परतीत । 
करम भरम सब त्यागि के, चलै सो भव जल जीत ॥ 481 ॥ 

जग सब सागर मोहिं, कहु कैसे बूड़त तेरे । 
गहु सतगुरु की बाहिं जो जल थल रक्षा करै ॥ 482 ॥ 


॥ गुरु पारख पर दोहे ॥ 

जानीता बूझा नहीं बूझि किया नहीं गौन । 
अन्धे को अन्धा मिला, राह बतावे कौन ॥ 483 ॥ 

जाका गुरु है आँधरा, चेला खरा निरन्ध । 
अन्धे को अन्धा मिला, पड़ा काल के फन्द ॥ 484 ॥ 

गुरु लोभ शिष लालची, दोनों खेले दाँव । 
दोनों बूड़े बापुरे, चढ़ि पाथर की नाँव ॥ 485 ॥ 

आगे अंधा कूप में, दूजे लिया बुलाय । 
दोनों बूडछे बापुरे, निकसे कौन उपाय ॥ 486 ॥ 

गुरु किया है देह का, सतगुरु चीन्हा नाहिं । 
भवसागर के जाल में, फिर फिर गोता खाहि ॥ 487 ॥ 

पूरा सतगुरु न मिला, सुनी अधूरी सीख । 
स्वाँग यती का पहिनि के, घर घर माँगी भीख ॥ 488 ॥ 

कबीर गुरु है घाट का, हाँटू बैठा चेल । 
मूड़ मुड़ाया साँझ कूँ गुरु सबेरे ठेल ॥ 489 ॥ 

गुरु-गुरु में भेद है, गुरु-गुरु में भाव । 
सोइ गुरु नित बन्दिये, शब्द बतावे दाव ॥ 490 ॥ 

जो गुरु ते भ्रम न मिटे, भ्रान्ति न जिसका जाय । 
सो गुरु झूठा जानिये, त्यागत देर न लाय ॥ 491 ॥ 

झूठे गुरु के पक्ष की, तजत न कीजै वार । 
द्वार न पावै शब्द का, भटके बारम्बार ॥ 492 ॥ 

सद्गुरु ऐसा कीजिये, लोभ मोह भ्रम नाहिं । 
दरिया सो न्यारा रहे, दीसे दरिया माहि ॥ 493 ॥ 

कबीर बेड़ा सार का, ऊपर लादा सार । 
पापी का पापी गुरु, यो बूढ़ा संसार ॥ 494 ॥ 

जो गुरु को तो गम नहीं, पाहन दिया बताय । 
शिष शोधे बिन सेइया, पार न पहुँचा जाए ॥ 495 ॥ 

सोचे गुरु के पक्ष में, मन को दे ठहराय । 
चंचल से निश्चल भया, नहिं आवै नहीं जाय ॥ 496 ॥ 

गु अँधियारी जानिये, रु कहिये परकाश । 
मिटि अज्ञाने ज्ञान दे, गुरु नाम है तास ॥ 497 ॥ 

गुरु नाम है गम्य का, शीष सीख ले सोय । 
बिनु पद बिनु मरजाद नर, गुरु शीष नहिं कोय ॥ 498 ॥ 

गुरुवा तो घर फिरे, दीक्षा हमारी लेह । 
कै बूड़ौ कै ऊबरो, टका परदानी देह ॥ 499 ॥ 

गुरुवा तो सस्ता भया, कौड़ी अर्थ पचास । 
अपने तन की सुधि नहीं, शिष्य करन की आस ॥ 500 ॥ 

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