गुरुवार, 10 सितंबर 2015

कबीर दोहावली -भाग ४७

बारी-बारी आपने, चले पियारे मीत ।
तेरी बारी जीयरा, नियरे आवै नीत ॥ 826 ॥ 

एक दिन ऐसा होयगा, कोय काहु का नाहिं ।
घर की नारी को कहै, तन की नारी जाहिं ॥ 827 ॥ 

बैल गढ़न्ता नर, चूका सींग रू पूँछ ।
एकहिं गुरुँ के ज्ञान बिनु, धिक दाढ़ी धिक मूँछ ॥ 828 ॥

यह बिरियाँ तो फिर नहीं, मनमें देख विचार ।
आया लाभहिं कारनै, जनम जुवा मति हार ॥ 829 ॥ 

खलक मिला खाली हुआ, बहुत किया बकवाद । 
बाँझ हिलावै पालना, तामें कौन सवाद ॥ 830 ॥ 

चले गये सो ना मिले, किसको पूछूँ जात । 
मात-पिता-सुत बान्धवा, झूठा सब संघात ॥ 831 ॥ 

विषय वासना उरझिकर जनम गँवाय जाद ।
अब पछितावा क्या करे, निज करनी कर याद ॥ 832 ॥ 

हे मतिहीनी माछीरी! राखि न सकी शरीर ।
सो सरवर सेवा नहीं , जाल काल नहिं कीर ॥ 833 ॥ 

मछरी यह छोड़ी नहीं, धीमर तेरो काल । 
जिहि जिहि डाबर धर करो, तहँ तहँ मेले जाल ॥ 834 ॥ 

परदा रहती पदुमिनी, करती कुल की कान ।
घड़ी जु पहुँची काल की, छोड़ भई मैदान ॥ 835 ॥ 

जागो लोगों मत सुवो, ना करूँ नींद से प्यार ।
जैसा सपना रैन का, ऐसा यह संसार ॥ 836 ॥ 

क्या करिये क्या जोड़िये, तोड़े जीवन काज । 
छाड़ि छाड़ि सब जात है, देह गेह धन राज ॥ 837 ॥ 

जिन घर नौबत बाजती, होत छतीसों राग ।
सो घर भी खाली पड़े, बैठने लागे काग ॥ 838 ॥ 

कबीर काया पाहुनी, हंस बटाऊ माहिं ।
ना जानूं कब जायगा, मोहि भरोसा नाहिं ॥ 839 ॥

जो तू परा है फंद में निकसेगा कब अंध ।
माया मद तोकूँ चढ़ा, मत भूले मतिमंद ॥ 840 ॥ 

अहिरन की चोरी करै, करै सुई का दान ।
ऊँचा चढ़ि कर देखता, केतिक दुरि विमान ॥ 841 ॥ 

नर नारायन रूप है, तू मति समझे देह ।
जो समझै तो समझ ले, खलक पलक में खोह ॥ 842 ॥ 

मन मुवा माया मुई, संशय मुवा शरीर । 
अविनाशी जो न मरे, तो क्यों मरे कबीर ॥ 843 ॥ 

मरूँ- मरूँ सब कोइ कहै, मेरी मरै बलाय । 
मरना था तो मरि चुका, अब को मरने जाय ॥ 844 ॥ 

एक बून्द के कारने, रोता सब संसार ।
अनेक बून्द खाली गये, तिनका नहीं विचार ॥ 845 ॥ 

समुझाये समुझे नहीं, धरे बहुत अभिमान । 
गुरु का शब्द उछेद है, कहत सकल हम जान ॥ 846 ॥ 

राज पाट धन पायके, क्यों करता अभिमान ।
पड़ोसी की जो दशा, भई सो अपनी जान ॥ 847 ॥ 

मूरख शब्द न मानई, धर्म न सुनै विचार । 
सत्य शब्द नहिं खोजई, जावै जम के द्वार ॥ 848 ॥ 

चेत सवेरे बाचरे, फिर पाछे पछिताय ।
तोको जाना दूर है, कहैं कबीर बुझाय ॥ 849 ॥ 

क्यों खोवे नरतन वृथा, परि विषयन के साथ । 
पाँच कुल्हाड़ी मारही, मूरख अपने हाथ ॥ 850 ॥ 
आँखि न देखे बावरा, शब्द सुनै नहिं कान । 
सिर के केस उज्ज्वल भये, अबहु निपट अजान ॥ 851 ॥ 

ज्ञानी होय सो मानही, बूझै शब्द हमार ।
कहैं कबीर सो बाँचि है, और सकल जमधार ॥ 852 ॥

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