बारी-बारी आपने, चले पियारे मीत ।
तेरी बारी जीयरा, नियरे आवै नीत ॥ 826 ॥
एक दिन ऐसा होयगा, कोय काहु का नाहिं ।
घर की नारी को कहै, तन की नारी जाहिं ॥ 827 ॥
बैल गढ़न्ता नर, चूका सींग रू पूँछ ।
एकहिं गुरुँ के ज्ञान बिनु, धिक दाढ़ी धिक मूँछ ॥ 828 ॥
यह बिरियाँ तो फिर नहीं, मनमें देख विचार ।
आया लाभहिं कारनै, जनम जुवा मति हार ॥ 829 ॥
खलक मिला खाली हुआ, बहुत किया बकवाद ।
बाँझ हिलावै पालना, तामें कौन सवाद ॥ 830 ॥
चले गये सो ना मिले, किसको पूछूँ जात ।
मात-पिता-सुत बान्धवा, झूठा सब संघात ॥ 831 ॥
विषय वासना उरझिकर जनम गँवाय जाद ।
अब पछितावा क्या करे, निज करनी कर याद ॥ 832 ॥
हे मतिहीनी माछीरी! राखि न सकी शरीर ।
सो सरवर सेवा नहीं , जाल काल नहिं कीर ॥ 833 ॥
मछरी यह छोड़ी नहीं, धीमर तेरो काल ।
जिहि जिहि डाबर धर करो, तहँ तहँ मेले जाल ॥ 834 ॥
परदा रहती पदुमिनी, करती कुल की कान ।
घड़ी जु पहुँची काल की, छोड़ भई मैदान ॥ 835 ॥
जागो लोगों मत सुवो, ना करूँ नींद से प्यार ।
जैसा सपना रैन का, ऐसा यह संसार ॥ 836 ॥
क्या करिये क्या जोड़िये, तोड़े जीवन काज ।
छाड़ि छाड़ि सब जात है, देह गेह धन राज ॥ 837 ॥
जिन घर नौबत बाजती, होत छतीसों राग ।
सो घर भी खाली पड़े, बैठने लागे काग ॥ 838 ॥
कबीर काया पाहुनी, हंस बटाऊ माहिं ।
ना जानूं कब जायगा, मोहि भरोसा नाहिं ॥ 839 ॥
जो तू परा है फंद में निकसेगा कब अंध ।
माया मद तोकूँ चढ़ा, मत भूले मतिमंद ॥ 840 ॥
अहिरन की चोरी करै, करै सुई का दान ।
ऊँचा चढ़ि कर देखता, केतिक दुरि विमान ॥ 841 ॥
नर नारायन रूप है, तू मति समझे देह ।
जो समझै तो समझ ले, खलक पलक में खोह ॥ 842 ॥
मन मुवा माया मुई, संशय मुवा शरीर ।
अविनाशी जो न मरे, तो क्यों मरे कबीर ॥ 843 ॥
मरूँ- मरूँ सब कोइ कहै, मेरी मरै बलाय ।
मरना था तो मरि चुका, अब को मरने जाय ॥ 844 ॥
एक बून्द के कारने, रोता सब संसार ।
अनेक बून्द खाली गये, तिनका नहीं विचार ॥ 845 ॥
समुझाये समुझे नहीं, धरे बहुत अभिमान ।
गुरु का शब्द उछेद है, कहत सकल हम जान ॥ 846 ॥
राज पाट धन पायके, क्यों करता अभिमान ।
पड़ोसी की जो दशा, भई सो अपनी जान ॥ 847 ॥
मूरख शब्द न मानई, धर्म न सुनै विचार ।
सत्य शब्द नहिं खोजई, जावै जम के द्वार ॥ 848 ॥
चेत सवेरे बाचरे, फिर पाछे पछिताय ।
तोको जाना दूर है, कहैं कबीर बुझाय ॥ 849 ॥
क्यों खोवे नरतन वृथा, परि विषयन के साथ ।
पाँच कुल्हाड़ी मारही, मूरख अपने हाथ ॥ 850 ॥
आँखि न देखे बावरा, शब्द सुनै नहिं कान ।
सिर के केस उज्ज्वल भये, अबहु निपट अजान ॥ 851 ॥
ज्ञानी होय सो मानही, बूझै शब्द हमार ।
कहैं कबीर सो बाँचि है, और सकल जमधार ॥ 852 ॥
तेरी बारी जीयरा, नियरे आवै नीत ॥ 826 ॥
एक दिन ऐसा होयगा, कोय काहु का नाहिं ।
घर की नारी को कहै, तन की नारी जाहिं ॥ 827 ॥
बैल गढ़न्ता नर, चूका सींग रू पूँछ ।
एकहिं गुरुँ के ज्ञान बिनु, धिक दाढ़ी धिक मूँछ ॥ 828 ॥
यह बिरियाँ तो फिर नहीं, मनमें देख विचार ।
आया लाभहिं कारनै, जनम जुवा मति हार ॥ 829 ॥
खलक मिला खाली हुआ, बहुत किया बकवाद ।
बाँझ हिलावै पालना, तामें कौन सवाद ॥ 830 ॥
चले गये सो ना मिले, किसको पूछूँ जात ।
मात-पिता-सुत बान्धवा, झूठा सब संघात ॥ 831 ॥
विषय वासना उरझिकर जनम गँवाय जाद ।
अब पछितावा क्या करे, निज करनी कर याद ॥ 832 ॥
हे मतिहीनी माछीरी! राखि न सकी शरीर ।
सो सरवर सेवा नहीं , जाल काल नहिं कीर ॥ 833 ॥
मछरी यह छोड़ी नहीं, धीमर तेरो काल ।
जिहि जिहि डाबर धर करो, तहँ तहँ मेले जाल ॥ 834 ॥
परदा रहती पदुमिनी, करती कुल की कान ।
घड़ी जु पहुँची काल की, छोड़ भई मैदान ॥ 835 ॥
जागो लोगों मत सुवो, ना करूँ नींद से प्यार ।
जैसा सपना रैन का, ऐसा यह संसार ॥ 836 ॥
क्या करिये क्या जोड़िये, तोड़े जीवन काज ।
छाड़ि छाड़ि सब जात है, देह गेह धन राज ॥ 837 ॥
जिन घर नौबत बाजती, होत छतीसों राग ।
सो घर भी खाली पड़े, बैठने लागे काग ॥ 838 ॥
कबीर काया पाहुनी, हंस बटाऊ माहिं ।
ना जानूं कब जायगा, मोहि भरोसा नाहिं ॥ 839 ॥
जो तू परा है फंद में निकसेगा कब अंध ।
माया मद तोकूँ चढ़ा, मत भूले मतिमंद ॥ 840 ॥
अहिरन की चोरी करै, करै सुई का दान ।
ऊँचा चढ़ि कर देखता, केतिक दुरि विमान ॥ 841 ॥
नर नारायन रूप है, तू मति समझे देह ।
जो समझै तो समझ ले, खलक पलक में खोह ॥ 842 ॥
मन मुवा माया मुई, संशय मुवा शरीर ।
अविनाशी जो न मरे, तो क्यों मरे कबीर ॥ 843 ॥
मरूँ- मरूँ सब कोइ कहै, मेरी मरै बलाय ।
मरना था तो मरि चुका, अब को मरने जाय ॥ 844 ॥
एक बून्द के कारने, रोता सब संसार ।
अनेक बून्द खाली गये, तिनका नहीं विचार ॥ 845 ॥
समुझाये समुझे नहीं, धरे बहुत अभिमान ।
गुरु का शब्द उछेद है, कहत सकल हम जान ॥ 846 ॥
राज पाट धन पायके, क्यों करता अभिमान ।
पड़ोसी की जो दशा, भई सो अपनी जान ॥ 847 ॥
मूरख शब्द न मानई, धर्म न सुनै विचार ।
सत्य शब्द नहिं खोजई, जावै जम के द्वार ॥ 848 ॥
चेत सवेरे बाचरे, फिर पाछे पछिताय ।
तोको जाना दूर है, कहैं कबीर बुझाय ॥ 849 ॥
क्यों खोवे नरतन वृथा, परि विषयन के साथ ।
पाँच कुल्हाड़ी मारही, मूरख अपने हाथ ॥ 850 ॥
आँखि न देखे बावरा, शब्द सुनै नहिं कान ।
सिर के केस उज्ज्वल भये, अबहु निपट अजान ॥ 851 ॥
ज्ञानी होय सो मानही, बूझै शब्द हमार ।
कहैं कबीर सो बाँचि है, और सकल जमधार ॥ 852 ॥
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