मंगलवार, 8 सितंबर 2015

कबीर दोहावली -भाग ३४

छठे मास नहिं करि सके, बरस दिना करि लेय । 
कहैं कबीर सो भक्तजन, जमहिं चुनौती देय ॥ 551 ॥ 

मास-मास नहिं करि सकै, उठे मास अलबत्त । 
यामें ढील न कीजिये, कहै कबीर अविगत्त ॥ 552 ॥ 

मात-पिता सुत इस्तरी आलस्य बन्धू कानि । 
साधु दरश को जब चलैं, ये अटकावै आनि ॥ 553 ॥ 

साधु चलत रो दीजिये, कीजै अति सनमान । 
कहैं कबीर कछु भेट धरूँ, अपने बित्त अनुमान ॥ 554 ॥ 

इन अटकाया न रुके, साधु दरश को जाय । 
कहै कबीर सोई सन्तजन, मोक्ष मुक्ति फल पाय ॥ 555 ॥ 

खाली साधु न बिदा करूँ, सुन लीजै सब कोय । 
कहै कबीर कछु भेंट धरूँ, जो तेरे घर होय ॥ 556 ॥ 

सुनिये पार जो पाइया, छाजन भोजन आनि । 
कहै कबीर संतन को, देत न कीजै कानि ॥ 557 ॥ 

कबीर दरशन साधु के, खाली हाथ न जाय । 
यही सीख बुध लीजिए, कहै कबीर बुझाय ॥ 558 ॥ 

टूका माही टूक दे, चीर माहि सो चीर । 
साधु देत न सकुचिये, यों कशि कहहिं कबीर ॥ 559 ॥ 

कबीर लौंग-इलायची, दातुन, माटी पानि । 
कहै कबीर सन्तन को, देत न कीजै कानि ॥ 560 ॥ 

साधु आवत देखिकर, हँसी हमारी देह । 
माथा का ग्रह उतरा, नैनन बढ़ा सनेह ॥ 561 ॥ 

साधु शब्द समुद्र है, जामें रत्न भराय । 
मन्द भाग मट्टी भरे, कंकर हाथ लगाय ॥ 562 ॥ 

साधु आया पाहुना, माँगे चार रतन । 
धूनी पानी साथरा, सरधा सेती अन्न ॥ 563 ॥ 

साधु आवत देखिके, मन में करै भरोर । 
सो तो होसी चूह्रा, बसै गाँव की ओर ॥ 564 ॥ 

साधु मिलै यह सब हलै, काल जाल जम चोट । 
शीश नवावत ढ़हि परै, अघ पावन को पोट ॥ 565 ॥ 

साधु बिरछ सतज्ञान फल, शीतल शब्द विचार । 
जग में होते साधु नहिं, जर भरता संसार ॥ 566 ॥ 

साधु बड़े परमारथी, शीतल जिनके अंग । 
तपन बुझावै ओर की, देदे अपनो रंग ॥ 567 ॥ 

आवत साधु न हरखिया, जात न दीया रोय । 
कहै कबीर वा दास की, मुक्ति कहाँ से होय ॥ 568 ॥ 

छाजन भोजन प्रीति सो, दीजै साधु बुलाय । 
जीवन जस है जगन में, अन्त परम पद पाय ॥ 569 ॥ 

सरवर तरवर सन्त जन, चौथा बरसे मेह । 
परमारथ के कारने, चारों धारी देह ॥ 570 ॥ 

बिरछा कबहुँ न फल भखै, नदी न अंचय नीर । 
परमारथ के कारने, साधु धरा शरीर ॥ 571 ॥ 

सुख देवै दुख को हरे, दूर करे अपराध । 
कहै कबीर वह कब मिले, परम सनेही साध ॥ 572 ॥ 

साधुन की झुपड़ी भली, न साकट के गाँव । 
चंदन की कुटकी भली, ना बूबल बनराव ॥ 573 ॥ 

कह अकाश को फेर है, कह धरती को तोल । 
कहा साध की जाति है, कह पारस का मोल ॥ 574 ॥ 

हयबर गयबर सधन धन, छत्रपति की नारि । 
तासु पटतरा न तुले, हरिजन की परिहारिन ॥ 575 ॥ 

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