मंगलवार, 8 सितंबर 2015

कबीर दोहावली -भाग ३४

साकट का मुख बिम्ब है निकसत बचन भुवंग । 
ताकि औषण मौन है, विष नहिं व्यापै अंग ॥ 526 ॥ 

शुकदेव सरीखा फेरिया, तो को पावे पार । 
बिनु गुरु निगुरा जो रहे, पड़े चौरासी धार ॥ 527 ॥ 

कबीर लहरि समुन्द्र की, मोती बिखरे आय । 
बगुला परख न जानई, हंस चुनि-चुनि खाय ॥ 528 ॥ 

साकट कहा न कहि चलै, सुनहा कहा न खाय । 
जो कौवा मठ हगि भरै, तो मठ को कहा नशाय ॥ 529 ॥ 

साकट मन का जेवरा, भजै सो करराय । 
दो अच्छर गुरु बहिरा, बाधा जमपुर जाय ॥ 530 ॥ 

कबीर साकट की सभा, तू मति बैठे जाय । 
एक गुवाड़े कदि बड़ै, रोज गदहरा गाय ॥ 531 ॥ 

संगत सोई बिगुर्चई, जो है साकट साथ । 
कंचन कटोरा छाड़ि के, सनहक लीन्ही हाथ ॥ 532 ॥ 

साकट संग न बैठिये करन कुबेर समान । 
ताके संग न चलिये, पड़ि हैं नरक निदान ॥ 533 ॥ 

टेक न कीजै बावरे, टेक माहि है हानि । 
टेक छाड़ि मानिक मिलै, सत गुरु वचन प्रमानि ॥ 534 ॥ 

साकट सूकर कीकरा, तीनों की गति एक है । 
कोटि जतन परमोघिये, तऊ न छाड़े टेक ॥ 535 ॥ 

निगुरा ब्राह्म्ण नहिं भला, गुरुमुख भला चमार । 
देवतन से कुत्ता भला, नित उठि भूँके द्वार ॥ 536 ॥ 

हरिजन आवत देखिके, मोहड़ो सूखि गयो । 
भाव भक्ति समझयो नहीं, मूरख चूकि गयो ॥ 537 ॥ 

खसम कहावै बैरनव, घर में साकट जोय । 
एक धरा में दो मता, भक्ति कहाँ ते होय ॥ 538 ॥ 

घर में साकट स्त्री, आप कहावे दास । 
वो तो होगी शूकरी, वो रखवाला पास ॥ 539 ॥ 

आँखों देखा घी भला, न मुख मेला तेल । 
साघु सो झगड़ा भला, ना साकट सों मेल ॥ 540 ॥ 

कबीर दर्शन साधु का, बड़े भाग दरशाय । 
जो होवै सूली सजा, काँटे ई टरि जाय ॥ 541 ॥ 

कबीर सोई दिन भला, जा दिन साधु मिलाय । 
अंक भरे भारि भेटिये, पाप शरीर जाय ॥ 542 ॥ 

कबीर दर्शन साधु के, करत न कीजै कानि । 
ज्यों उद्य्म से लक्ष्मी, आलस मन से हानि ॥ 543 ॥ 

कई बार नाहिं कर सके, दोय बखत करिलेय । 
कबीर साधु दरश ते, काल दगा नहिं देय ॥ 544 ॥ 

दूजे दिन नहिं करि सके, तीजे दिन करू जाय । 
कबीर साधु दरश ते मोक्ष मुक्ति फन पाय ॥ 545 ॥ 

तीजे चौथे नहिं करे, बार-बार करू जाय । 
यामें विलंब न कीजिये, कहैं कबीर समुझाय ॥ 546 ॥ 

दोय बखत नहिं करि सके, दिन में करूँ इक बार । 
कबीर साधु दरश ते, उतरैं भव जल पार ॥ 547 ॥ 

बार-बार नहिं करि सके, पाख-पाख करिलेय । 
कहैं कबीरन सो भक्त जन, जन्म सुफल करि लेय ॥ 548 ॥ 

पाख-पाख नहिं करि सकै, मास मास करू जाय । 
यामें देर न लाइये, कहैं कबीर समुदाय ॥ 549 ॥ 

बरस-बरस नाहिं करि सकै ताको लागे दोष । 
कहै कबीर वा जीव सो, कबहु न पावै योष ॥ 550 ॥ 

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