मंगलवार, 8 सितंबर 2015

कबीर दोहावली -भाग २१

ते दिन गये अकारथी, संगत भई न संत । 
प्रेम बिना पशु जीवना, भक्ति बिना भगवंत ॥ 201 ॥ 

तीर तुपक से जो लड़े, सो तो शूर न होय । 
माया तजि भक्ति करे, सूर कहावै सोय ॥ 202 ॥ 

तन को जोगी सब करे, मन को बिरला कोय । 
सहजै सब विधि पाइये, जो मन जोगी होय ॥ 203 ॥ 

तब लग तारा जगमगे, जब लग उगे नसूर । 
तब लग जीव जग कर्मवश, जब लग ज्ञान ना पूर ॥ 204 ॥ 

दुर्लभ मानुष जनम है, देह न बारम्बार । 
तरुवर ज्यों पत्ती झड़े, बहुरि न लागे डार ॥ 205 ॥ 

दस द्वारे का पींजरा, तामें पंछी मौन । 
रहे को अचरज भयौ, गये अचम्भा कौन ॥ 206 ॥ 

धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय । 
माली सीचें सौ घड़ा, ॠतु आए फल होय ॥ 207 ॥ 

न्हाये धोये क्या हुआ, जो मन मैल न जाय । 
मीन सदा जल में रहै, धोये बास न जाय ॥ 208 ॥ 

पाँच पहर धन्धे गया, तीन पहर गया सोय । 
एक पहर भी नाम बीन, मुक्ति कैसे होय ॥ 209 ॥ 

पोथी पढ़-पढ़ जग मुआ, पंडित भया न कोय । 
ढ़ाई आखर प्रेम का, पढ़ै सो पंड़ित होय ॥ 210 ॥ 

पानी केरा बुदबुदा, अस मानस की जात । 
देखत ही छिप जाएगा, ज्यों सारा परभात ॥ 211 ॥ 

पाहन पूजे हरि मिलें, तो मैं पूजौं पहार । 
याते ये चक्की भली, पीस खाय संसार ॥ 212 ॥ 

पत्ता बोला वृक्ष से, सुनो वृक्ष बनराय । 
अब के बिछुड़े ना मिले, दूर पड़ेंगे जाय ॥ 213 ॥ 

प्रेमभाव एक चाहिए, भेष अनेक बजाय । 
चाहे घर में बास कर, चाहे बन मे जाय ॥ 214 ॥ 

बन्धे को बँनधा मिले, छूटे कौन उपाय । 
कर संगति निरबन्ध की, पल में लेय छुड़ाय ॥ 215 ॥ 

बूँद पड़ी जो समुद्र में, ताहि जाने सब कोय । 
समुद्र समाना बूँद में, बूझै बिरला कोय ॥ 216 ॥ 

बाहर क्या दिखराइये, अन्तर जपिए राम । 
कहा काज संसार से, तुझे धनी से काम ॥ 217 ॥ 

बानी से पहचानिए, साम चोर की घात । 
अन्दर की करनी से सब, निकले मुँह की बात ॥ 218 ॥ 

बड़ा हुआ सो क्या हुआ, जैसे पेड़ खजूर । 
पँछी को छाया नहीं, फल लागे अति दूर ॥ 219 ॥ 

मूँड़ मुड़ाये हरि मिले, सब कोई लेय मुड़ाय । 
बार-बार के मुड़ते, भेड़ न बैकुण्ठ जाय ॥ 220 ॥ 

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