मंगलवार, 8 सितंबर 2015

कबीर दोहावली -भाग ३७

सो दिन गया इकारथे, संगत भई न सन्त । 
ज्ञान बिना पशु जीवना, भक्ति बिना भटकन्त ॥ 626 ॥ 

आशा तजि माया तजै, मोह तजै अरू मान । 
हरष शोक निन्दा तजै, कहैं कबीर सन्त जान ॥ 627 ॥ 

आसन तो इकान्त करैं, कामिनी संगत दूर । 
शीतल सन्त शिरोमनी, उनका ऐसा नूर ॥ 628 ॥ 

यह कलियुग आयो अबै, साधु न जाने कोय । 
कामी क्रोधी मस्खरा, तिनकी पूजा होय ॥ 629 ॥ 

कुलवन्ता कोटिक मिले, पण्डित कोटि पचीस । 
सुपच भक्त की पनहि में, तुलै न काहू शीश ॥ 630 ॥ 

साधु दरशन महाफल, कोटि यज्ञ फल लेह । 
इक मन्दिर को का पड़ी, नगर शुद्ध करिलेह ॥ 631 ॥ 

साधु दरश को जाइये, जेता धरिये पाँय । 
डग-डग पे असमेध जग, है कबीर समुझाय ॥ 632 ॥ 

सन्त मता गजराज का, चालै बन्धन छोड़ । 
जग कुत्ता पीछे फिरैं, सुनै न वाको सोर ॥ 633 ॥ 

आज काल दिन पाँच में, बरस पाँच जुग पंच । 
जब तब साधू तारसी, और सकल पर पंच ॥ 634 ॥ 

साधु ऐसा चाहिए, जहाँ रहै तहँ गैब । 
बानी के बिस्तार में, ताकूँ कोटिक ऐब ॥ 635 ॥ 

सन्त होत हैं, हेत के, हेतु तहाँ चलि जाय । 
कहैं कबीर के हेत बिन, गरज कहाँ पतियाय ॥ 636 ॥ 

हेत बिना आवै नहीं, हेत तहाँ चलि जाय । 
कबीर जल और सन्तजन, नवैं तहाँ ठहराय ॥ 637 ॥ 

साधु-ऐसा चाहिए, जाका पूरा मंग । 
विपत्ति पड़े छाड़ै नहीं, चढ़े चौगुना रंग ॥ 638 ॥ 

सन्त सेव गुरु बन्दगी, गुरु सुमिरन वैराग । 
ये ता तबही पाइये, पूरन मस्तक भाग ॥ 639 ॥ 

॥ भेष के विषय मे दोहे ॥ 

चाल बकुल की चलत हैं, बहुरि कहावै हंस । 
ते मुक्ता कैसे चुंगे, पड़े काल के फंस ॥ 640 ॥ 

बाना पहिरे सिंह का, चलै भेड़ की चाल । 
बोली बोले सियार की, कुत्ता खवै फाल ॥ 641 ॥ 

साधु भया तो क्या भया, माला पहिरी चार । 
बाहर भेष बनाइया, भीतर भरी भंगार ॥ 642 ॥ 

तन को जोगी सब करै, मन को करै न कोय । 
सहजै सब सिधि पाइये, जो मन जोगी होय ॥ 643 ॥ 

जौ मानुष गृह धर्म युत, राखै शील विचार । 
गुरुमुख बानी साधु संग, मन वच, सेवा सार ॥ 644 ॥ 

शब्द विचारे पथ चलै, ज्ञान गली दे पाँव । 
क्या रमता क्या बैठता, क्या गृह कंदला छाँव ॥ 645 ॥ 

गिरही सुवै साधु को, भाव भक्ति आनन्द । 
कहैं कबीर बैरागी को, निरबानी निरदुन्द ॥ 646 ॥ 

पाँच सात सुमता भरी, गुरु सेवा चित लाय । 
तब गुरु आज्ञा लेय के, रहे देशान्तर जाय ॥ 647 ॥ 

गुरु के सनमुख जो रहै, सहै कसौटी दुख । 
कहैं कबीर तो दुख पर वारों, कोटिक सूख ॥ 648 ॥ 

मन मैला तन ऊजरा, बगुला कपटी अंग । 
तासों तो कौवा भला, तन मन एकहि रंग ॥ 649 ॥ 

भेष देख मत भूलिये, बूझि लीजिये ज्ञान । 
बिना कसौटी होत नहीं, कंचन की पहिचान ॥ 650 ॥ 

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