सोमवार, 7 सितंबर 2015

कबीर दोहावली -भाग ७

घट का परदा खोलकर, सन्मुख दे दीदार । 
बाल सनेही सांइयाँ, आवा अन्त का यार ॥ 61 ॥ 

अन्तर्यामी एक तुम, आत्मा के आधार । 
जो तुम छोड़ो हाथ तो, कौन उतारे पार ॥ 62 ॥ 

मैं अपराधी जन्म का, नख-सिख भरा विकार । 
तुम दाता दु:ख भंजना, मेंरी करो सम्हार ॥ 63 ॥ 

प्रेम न बाड़ी ऊपजै, प्रेम न हाट बिकाय । 
राजा-परजा जेहि रुचें, शीश देई ले जाय ॥ 64 ॥ 

प्रेम प्याला जो पिये, शीश दक्षिणा देय । 
लोभी शीश न दे सके, नाम प्रेम का लेय ॥ 65 ॥ 

सुमिरन में मन लाइए, जैसे नाद कुरंग । 
कहैं कबीर बिसरे नहीं, प्रान तजे तेहि संग ॥ 66 ॥ 

सुमरित सुरत जगाय कर, मुख के कछु न बोल । 
बाहर का पट बन्द कर, अन्दर का पट खोल ॥ 67 ॥ 

छीर रूप सतनाम है, नीर रूप व्यवहार । 
हंस रूप कोई साधु है, सत का छाननहार ॥ 68 ॥ 

ज्यों तिल मांही तेल है, ज्यों चकमक में आग । 
तेरा सांई तुझमें, बस जाग सके तो जाग ॥ 69 ॥ 

जा करण जग ढ़ूँढ़िया, सो तो घट ही मांहि । 
परदा दिया भरम का, ताते सूझे नाहिं ॥ 70 ॥ 

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