मंगलवार, 8 सितंबर 2015

कबीर दोहावली -भाग १७

काया काढ़ा काल घुन, जतन-जतन सो खाय । 
काया बह्रा ईश बस, मर्म न काहूँ पाय ॥ 161 ॥ 

कहा कियो हम आय कर, कहा करेंगे पाय । 
इनके भये न उतके, चाले मूल गवाय ॥ 162 ॥ 

कुटिल बचन सबसे बुरा, जासे होत न हार । 
साधु वचन जल रूप है, बरसे अम्रत धार ॥ 163 ॥ 

कहता तो बहूँना मिले, गहना मिला न कोय । 
सो कहता वह जान दे, जो नहीं गहना कोय ॥ 164 ॥ 

कबीरा मन पँछी भया, भये ते बाहर जाय । 
जो जैसे संगति करै, सो तैसा फल पाय ॥ 165 ॥ 

कबीरा लोहा एक है, गढ़ने में है फेर । 
ताहि का बखतर बने, ताहि की शमशेर ॥ 166 ॥ 

कहे कबीर देय तू, जब तक तेरी देह । 
देह खेह हो जाएगी, कौन कहेगा देह ॥ 167 ॥ 

करता था सो क्यों किया, अब कर क्यों पछिताय । 
बोया पेड़ बबूल का, आम कहाँ से खाय ॥ 168 ॥ 

कस्तूरी कुन्डल बसे, म्रग ढ़ूंढ़े बन माहिं । 
ऐसे घट-घट राम है, दुनिया देखे नाहिं ॥ 169 ॥ 

कबीरा सोता क्या करे, जागो जपो मुरार । 
एक दिना है सोवना, लांबे पाँव पसार ॥ 170 ॥ 

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