मंगलवार, 15 सितंबर 2015

जहाँ चलना मना है - ओमप्रकाश चतुर्वेदी 'पराग'

 जहाँ चलना मना है
वही इक रास्ता है
तुम्हें जो पूछता, वो
क्या खुद को जानता है!
सुबह कैसी, अभी तो
ये मयखाना खुला है
ये कहना तो ग़लत है
कि हर ग़लती खता है!
यहाँ शैतान है जो
कहीं वह देवता है
उधर सोने की खानें
इधर ताज़ी हवा है!
न जिसने हार मानी
वही तो जीतता है
झुकाकर सिर जिया जो
वो जीते जी मरा है!
'पराग' अब कुछ न कहना
बचा कहने को क्या है!

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें