मंगलवार, 8 सितंबर 2015

कबीर दोहावली -भाग ३१

मूल ध्यान गुरु रूप है, मूल पूजा गुरु पाँव । 
मूल नाम गुरु वचन है, मूल सत्य सतभाव ॥ 451 ॥ 

पंडित पाढ़ि गुनि पचि मुये, गुरु बिना मिलै न ज्ञान । 
ज्ञान बिना नहिं मुक्ति है, सत्त शब्द परनाम ॥ 452 ॥ 

सोइ-सोइ नाच नचाइये, जेहि निबहे गुरु प्रेम । 
कहै कबीर गुरु प्रेम बिन, कतहुँ कुशल नहि क्षेम ॥ 453 ॥ 

कहैं कबीर जजि भरम को, नन्हा है कर पीव । 
तजि अहं गुरु चरण गहु, जमसों बाचै जीव ॥ 454 ॥ 

कोटिन चन्दा उगही, सूरज कोटि हज़ार । 
तीमिर तौ नाशै नहीं, बिन गुरु घोर अंधार ॥ 455 ॥ 

तबही गुरु प्रिय बैन कहि, शीष बढ़ी चित प्रीत । 
ते रहियें गुरु सनमुखाँ कबहूँ न दीजै पीठ ॥ 456 ॥ 

तन मन शीष निछावरै, दीजै सरबस प्रान । 
कहैं कबीर गुरु प्रेम बिन, कितहूँ कुशल नहिं क्षेम ॥ 457 ॥ 

जो गुरु पूरा होय तो, शीषहि लेय निबाहि । 
शीष भाव सुत्त जानिये, सुत ते श्रेष्ठ शिष आहि ॥ 458 ॥ 

भौ सागर की त्रास तेक, गुरु की पकड़ो बाँहि । 
गुरु बिन कौन उबारसी, भौ जल धारा माँहि ॥ 459 ॥ 

करै दूरि अज्ञानता, अंजन ज्ञान सुदेय । 
बलिहारी वे गुरुन की हंस उबारि जुलेय ॥ 460 ॥ 

सुनिये सन्तों साधु मिलि, कहहिं कबीर बुझाय । 
जेहि विधि गुरु सों प्रीति छै कीजै सोई उपाय ॥ 461 ॥ 

अबुध सुबुध सुत मातु पितु, सबहि करै प्रतिपाल । 
अपनी और निबाहिये, सिख सुत गहि निज चाल ॥ 462 ॥ 

लौ लागी विष भागिया, कालख डारी धोय । 
कहैं कबीर गुरु साबुन सों, कोई इक ऊजल होय ॥ 463 ॥ 

राजा की चोरी करे, रहै रंग की ओट । 
कहैं कबीर क्यों उबरै, काल कठिन की चोट ॥ 464 ॥ 

साबुन बिचारा क्या करे, गाँठे राखे मोय । 
जल सो अरसां नहिं, क्यों कर ऊजल होय ॥ 465 ॥ 

॥ सतगुरु के विषय मे दोहे ॥ 


सत्गुरु तो सतभाव है, जो अस भेद बताय । 
धन्य शीष धन भाग तिहि जो ऐसी सुधि पाय ॥ 466 ॥ 

सतगुरु शरण न आवहीं, फिर फिर होय अकाज । 
जीव खोय सब जायेंगे काल तिहूँ पुर राज ॥ 467 ॥ 

सतगुरु सम कोई नहीं सात दीप नौ खण्ड । 
तीन लोक न पाइये, अरु इक्कीस ब्रह्म्ण्ड ॥ 468 ॥ 

सतगुरु मिला जु जानिये, ज्ञान उजाला होय । 
भ्रम का भांड तोड़ि करि, रहै निराला होय ॥ 469 ॥ 

सतगुरु मिले जु सब मिले, न तो मिला न कोय । 
माता-पिता सुत बाँधवा ये तो घर घर होय ॥ 470 ॥ 

जेहि खोजत ब्रह्मा थके, सुर नर मुनि अरु देव । 
कहै कबीर सुन साधवा, करु सतगुरु की सेव ॥ 471 ॥ 

मनहिं दिया निज सब दिया, मन से संग शरीर । 
अब देवे को क्या रहा, यों कयि कहहिं कबीर ॥ 472 ॥ 

सतगुरु को माने नही, अपनी कहै बनाय । 
कहै कबीर क्या कीजिये, और मता मन जाय ॥ 473 ॥ 

जग में युक्ति अनूप है, साधु संग गुरु ज्ञान । 
तामें निपट अनूप है, सतगुरु लागा कान ॥ 474 ॥ 

कबीर समूझा कहत है, पानी थाह बताय । 
ताकूँ सतगुरु का करे, जो औघट डूबे जाय ॥ 475 ॥ 

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें