मंगलवार, 8 सितंबर 2015

कबीर दोहावली -भाग २४

सुखिया सब संसार है, खावै और सोवे । 
दुखिया दास कबीर है, जागै अरु रौवे ॥ 261 ॥ 

परबति परबति मैं फिरया, नैन गंवाए रोइ । 
सो बूटी पाऊँ नहीं, जातैं जीवनि होइ ॥ 262 ॥ 

पूत पियारौ पिता कौं, गौहनि लागो घाइ । 
लोभ-मिठाई हाथ दे, आपण गयो भुलाइ ॥ 263 ॥ 

हाँसी खैलो हरि मिलै, कौण सहै षरसान । 
काम क्रोध त्रिष्णं तजै, तोहि मिलै भगवान ॥ 264 ॥ 

जा कारणि में ढ़ूँढ़ती, सनमुख मिलिया आइ । 
धन मैली पिव ऊजला, लागि न सकौं पाइ ॥ 265 ॥ 

पहुँचेंगे तब कहैगें, उमड़ैंगे उस ठांई । 
आजहूं बेरा समंद मैं, बोलि बिगू पैं काई ॥ 266 ॥ 

दीठा है तो कस कहूं, कह्मा न को पतियाइ । 
हरि जैसा है तैसा रहो, तू हरिष-हरिष गुण गाइ ॥ 267 ॥ 

भारी कहौं तो बहुडरौं, हलका कहूं तौ झूठ । 
मैं का जाणी राम कूं नैनूं कबहूं न दीठ ॥ 268 ॥ 

कबीर एक न जाण्यां, तो बहु जाण्यां क्या होइ । 
एक तै सब होत है, सब तैं एक न होइ ॥ 269 ॥ 

कबीर रेख स्यंदूर की, काजल दिया न जाइ । 
नैनूं रमैया रमि रह्मा, दूजा कहाँ समाइ ॥ 270 ॥ 

कबीर कूता राम का, मुतिया मेरा नाउं । 
गले राम की जेवड़ी, जित खैंचे तित जाउं ॥ 271 ॥ 

कबीर कलिजुग आइ करि, कीये बहुत जो भीत । 
जिन दिल बांध्या एक सूं, ते सुख सोवै निचींत ॥ 272 ॥ 

जब लग भगहित सकामता, सब लग निर्फल सेव । 
कहै कबीर वै क्यूँ मिलै निह्कामी निज देव ॥ 273 ॥ 

पतिबरता मैली भली, गले कांच को पोत । 
सब सखियन में यों दिपै, ज्यों रवि ससि को जोत ॥ 274 ॥ 

कामी अभी न भावई, विष ही कौं ले सोधि । 
कुबुध्दि न जीव की, भावै स्यंभ रहौ प्रमोथि ॥ 275 ॥ 

भगति बिगाड़ी कामियां, इन्द्री केरै स्वादि । 
हीरा खोया हाथ थैं, जनम गँवाया बादि ॥ 276 ॥ 

परनारी का राचणौ, जिसकी लहसण की खानि । 
खूणैं बेसिर खाइय, परगट होइ दिवानि ॥ 277 ॥ 

परनारी राता फिरैं, चोरी बिढ़िता खाहिं । 
दिवस चारि सरसा रहै, अति समूला जाहिं ॥ 278 ॥ 

ग्यानी मूल गँवाइया, आपण भये करना । 
ताथैं संसारी भला, मन मैं रहै डरना ॥ 279 ॥ 

कामी लज्जा ना करै, न माहें अहिलाद । 
नींद न माँगै साँथरा, भूख न माँगे स्वाद ॥ 280 ॥ 

कलि का स्वामी लोभिया, पीतलि घरी खटाइ । 
राज-दुबारा यौं फिरै, ज्यँ हरिहाई गाइ ॥ 291 ॥ 

स्वामी हूवा सीतका, पैलाकार पचास । 
राम-नाम काठें रह्मा, करै सिषां की आंस ॥ 292 ॥ 

इहि उदर के कारणे, जग पाच्यो निस जाम । 
स्वामी-पणौ जो सिरि चढ़यो, सिर यो न एको काम ॥ 293 ॥ 

ब्राह्म्ण गुरु जगत् का, साधू का गुरु नाहिं । 
उरझि-पुरझि करि भरि रह्मा, चारिउं बेदा मांहि ॥ 294 ॥ 

कबीर कलि खोटी भई, मुनियर मिलै न कोइ । 
लालच लोभी मसकरा, तिनकूँ आदर होइ ॥ 295 ॥ 

कलि का स्वमी लोभिया, मनसा घरी बधाई । 
दैंहि पईसा ब्याज़ को, लेखां करता जाई ॥ 296 ॥ 

कबीर इस संसार कौ, समझाऊँ कै बार । 
पूँछ जो पकड़ै भेड़ की उतर या चाहे पार ॥ 297 ॥ 

तीरथ करि-करि जग मुवा, डूंधै पाणी न्हाइ । 
रामहि राम जपतंडां, काल घसीटया जाइ ॥ 298 ॥ 

चतुराई सूवै पढ़ी, सोइ पंजर मांहि । 
फिरि प्रमोधै आन कौं, आपण समझे नाहिं ॥ 299 ॥ 

कबीर मन फूल्या फिरै, करता हूँ मैं घ्रंम । 
कोटि क्रम सिरि ले चल्या, चेत न देखै भ्रम ॥ 300 ॥ 
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