बैसनो भया तौ क्या भया, बूझा नहीं बबेक ।
छापा तिलक बनाइ करि, दगहया अनेक ॥ 371 ॥
स्वाँग पहरि सो रहा भया, खाया-पीया खूंदि ।
जिहि तेरी साधु नीकले, सो तो मेल्ही मूंदि ॥ 372 ॥
चतुराई हरि ना मिलै, ए बातां की बात ।
एक निस प्रेही निरधार का गाहक गोपीनाथ ॥ 373 ॥
एष ले बूढ़ी पृथमी, झूठे कुल की लार ।
अलष बिसारयो भेष में, बूड़े काली धार ॥ 374 ॥
कबीर हरि का भावता, झीणां पंजर ।
रैणि न आवै नींदड़ी, अंगि न चढ़ई मांस ॥ 375 ॥
सिंहों के लेहँड नहीं, हंसों की नहीं पाँत ।
लालों की नहि बोरियाँ, साध न चलै जमात ॥ 376 ॥
गाँठी दाम न बांधई, नहिं नारी सों नेह ।
कह कबीर ता साध की, हम चरनन की खेह ॥ 377 ॥
निरबैरी निहकामता, साईं सेती नेह ।
विषिया सूं न्यारा रहै, संतनि का अंग सह ॥ 378 ॥
जिहिं हिरदै हरि आइया, सो क्यूं छाना होइ ।
जतन-जतन करि दाबिये, तऊ उजाला सोइ ॥ 379 ॥
काम मिलावे राम कूं, जे कोई जाणै राखि ।
कबीर बिचारा क्या कहै, जाकि सुख्देव बोले साख ॥ 380 ॥
राम वियोगी तन बिकल, ताहि न चीन्हे कोई ।
तंबोली के पान ज्यूं, दिन-दिन पीला होई ॥ 381 ॥
पावक रूपी राम है, घटि-घटि रह्या समाइ ।
चित चकमक लागै नहीं, ताथै घूवाँ है-है जाइ ॥ 382 ॥
फाटै दीदै में फिरौं, नजिर न आवै कोई ।
जिहि घटि मेरा साँइयाँ, सो क्यूं छाना होई ॥ 383 ॥
हैवर गैवर सघन धन, छत्रपती की नारि ।
तास पटेतर ना तुलै, हरिजन की पनिहारि ॥ 384 ॥
जिहिं धरि साध न पूजि, हरि की सेवा नाहिं ।
ते घर भड़धट सारषे, भूत बसै तिन माहिं ॥ 385 ॥
कबीर कुल तौ सोभला, जिहि कुल उपजै दास ।
जिहिं कुल दास न उपजै, सो कुल आक-पलास ॥ 386 ॥
क्यूं नृप-नारी नींदिये, क्यूं पनिहारी कौ मान ।
वा माँग सँवारे पील कौ, या नित उठि सुमिरैराम ॥ 387 ॥
काबा फिर कासी भया, राम भया रे रहीम ।
मोट चून मैदा भया, बैठि कबीरा जीम ॥ 388 ॥
दुखिया भूखा दुख कौं, सुखिया सुख कौं झूरि ।
सदा अजंदी राम के, जिनि सुख-दुख गेल्हे दूरि ॥ 389 ॥
कबीर दुबिधा दूरि करि, एक अंग है लागि ।
यहु सीतल बहु तपति है, दोऊ कहिये आगि ॥ 390 ॥
कबीर का तू चिंतवै, का तेरा च्यंत्या होइ ।
अण्च्यंत्या हरिजी करै, जो तोहि च्यंत न होइ ॥ 391 ॥
भूखा भूखा क्या करैं, कहा सुनावै लोग ।
भांडा घड़ि जिनि मुख यिका, सोई पूरण जोग ॥ 392 ॥
रचनाहार कूं चीन्हि लै, खैबे कूं कहा रोइ ।
दिल मंदि मैं पैसि करि, ताणि पछेवड़ा सोइ ॥ 393 ॥
कबीर सब जग हंडिया, मांदल कंधि चढ़ाइ ।
हरि बिन अपना कोउ नहीं, देखे ठोकि बनाइ ॥ 394 ॥
मांगण मरण समान है, बिरता बंचै कोई ।
कहै कबीर रघुनाथ सूं, मति रे मंगावे मोहि ॥ 395 ॥
मानि महतम प्रेम-रस गरवातण गुण नेह ।
ए सबहीं अहला गया, जबही कह्या कुछ देह ॥ 396 ॥
संत न बांधै गाठड़ी, पेट समाता-तेइ ।
साईं सूं सनमुख रहै, जहाँ माँगे तहां देइ ॥ 397 ॥
कबीर संसा कोउ नहीं, हरि सूं लाग्गा हेत ।
काम-क्रोध सूं झूझणा, चौडै मांड्या खेत ॥ 398 ॥
कबीर सोई सूरिमा, मन सूँ मांडै झूझ ।
पंच पयादा पाड़ि ले, दूरि करै सब दूज ॥ 399 ॥
जिस मरनै यैं जग डरै, सो मेरे आनन्द ।
कब मरिहूँ कब देखिहूँ पूरन परमानंद ॥ 400 ॥
छापा तिलक बनाइ करि, दगहया अनेक ॥ 371 ॥
स्वाँग पहरि सो रहा भया, खाया-पीया खूंदि ।
जिहि तेरी साधु नीकले, सो तो मेल्ही मूंदि ॥ 372 ॥
चतुराई हरि ना मिलै, ए बातां की बात ।
एक निस प्रेही निरधार का गाहक गोपीनाथ ॥ 373 ॥
एष ले बूढ़ी पृथमी, झूठे कुल की लार ।
अलष बिसारयो भेष में, बूड़े काली धार ॥ 374 ॥
कबीर हरि का भावता, झीणां पंजर ।
रैणि न आवै नींदड़ी, अंगि न चढ़ई मांस ॥ 375 ॥
सिंहों के लेहँड नहीं, हंसों की नहीं पाँत ।
लालों की नहि बोरियाँ, साध न चलै जमात ॥ 376 ॥
गाँठी दाम न बांधई, नहिं नारी सों नेह ।
कह कबीर ता साध की, हम चरनन की खेह ॥ 377 ॥
निरबैरी निहकामता, साईं सेती नेह ।
विषिया सूं न्यारा रहै, संतनि का अंग सह ॥ 378 ॥
जिहिं हिरदै हरि आइया, सो क्यूं छाना होइ ।
जतन-जतन करि दाबिये, तऊ उजाला सोइ ॥ 379 ॥
काम मिलावे राम कूं, जे कोई जाणै राखि ।
कबीर बिचारा क्या कहै, जाकि सुख्देव बोले साख ॥ 380 ॥
राम वियोगी तन बिकल, ताहि न चीन्हे कोई ।
तंबोली के पान ज्यूं, दिन-दिन पीला होई ॥ 381 ॥
पावक रूपी राम है, घटि-घटि रह्या समाइ ।
चित चकमक लागै नहीं, ताथै घूवाँ है-है जाइ ॥ 382 ॥
फाटै दीदै में फिरौं, नजिर न आवै कोई ।
जिहि घटि मेरा साँइयाँ, सो क्यूं छाना होई ॥ 383 ॥
हैवर गैवर सघन धन, छत्रपती की नारि ।
तास पटेतर ना तुलै, हरिजन की पनिहारि ॥ 384 ॥
जिहिं धरि साध न पूजि, हरि की सेवा नाहिं ।
ते घर भड़धट सारषे, भूत बसै तिन माहिं ॥ 385 ॥
कबीर कुल तौ सोभला, जिहि कुल उपजै दास ।
जिहिं कुल दास न उपजै, सो कुल आक-पलास ॥ 386 ॥
क्यूं नृप-नारी नींदिये, क्यूं पनिहारी कौ मान ।
वा माँग सँवारे पील कौ, या नित उठि सुमिरैराम ॥ 387 ॥
काबा फिर कासी भया, राम भया रे रहीम ।
मोट चून मैदा भया, बैठि कबीरा जीम ॥ 388 ॥
दुखिया भूखा दुख कौं, सुखिया सुख कौं झूरि ।
सदा अजंदी राम के, जिनि सुख-दुख गेल्हे दूरि ॥ 389 ॥
कबीर दुबिधा दूरि करि, एक अंग है लागि ।
यहु सीतल बहु तपति है, दोऊ कहिये आगि ॥ 390 ॥
कबीर का तू चिंतवै, का तेरा च्यंत्या होइ ।
अण्च्यंत्या हरिजी करै, जो तोहि च्यंत न होइ ॥ 391 ॥
भूखा भूखा क्या करैं, कहा सुनावै लोग ।
भांडा घड़ि जिनि मुख यिका, सोई पूरण जोग ॥ 392 ॥
रचनाहार कूं चीन्हि लै, खैबे कूं कहा रोइ ।
दिल मंदि मैं पैसि करि, ताणि पछेवड़ा सोइ ॥ 393 ॥
कबीर सब जग हंडिया, मांदल कंधि चढ़ाइ ।
हरि बिन अपना कोउ नहीं, देखे ठोकि बनाइ ॥ 394 ॥
मांगण मरण समान है, बिरता बंचै कोई ।
कहै कबीर रघुनाथ सूं, मति रे मंगावे मोहि ॥ 395 ॥
मानि महतम प्रेम-रस गरवातण गुण नेह ।
ए सबहीं अहला गया, जबही कह्या कुछ देह ॥ 396 ॥
संत न बांधै गाठड़ी, पेट समाता-तेइ ।
साईं सूं सनमुख रहै, जहाँ माँगे तहां देइ ॥ 397 ॥
कबीर संसा कोउ नहीं, हरि सूं लाग्गा हेत ।
काम-क्रोध सूं झूझणा, चौडै मांड्या खेत ॥ 398 ॥
कबीर सोई सूरिमा, मन सूँ मांडै झूझ ।
पंच पयादा पाड़ि ले, दूरि करै सब दूज ॥ 399 ॥
जिस मरनै यैं जग डरै, सो मेरे आनन्द ।
कब मरिहूँ कब देखिहूँ पूरन परमानंद ॥ 400 ॥
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