मंगलवार, 8 सितंबर 2015

कबीर दोहावली -भाग १९

कबीरा खालिक जागिया, और ना जागे कोय । 
जाके विषय विष भरा, दास बन्दगी होय ॥ 181 ॥ 

गाँठि न थामहिं बाँध ही, नहिं नारी सो नेह । 
कह कबीर वा साधु की, हम चरनन की खेह ॥ 182 ॥ 

खेत न छोड़े सूरमा, जूझे को दल माँह । 
आशा जीवन मरण की, मन में राखे नाँह ॥ 183 ॥ 

चन्दन जैसा साधु है, सर्पहि सम संसार । 
वाके अग्ङ लपटा रहे, मन मे नाहिं विकार ॥ 184 ॥ 

घी के तो दर्शन भले, खाना भला न तेल । 
दाना तो दुश्मन भला, मूरख का क्या मेल ॥ 185 ॥ 

गारी ही सो ऊपजे, कलह कष्ट और भींच । 
हारि चले सो साधु हैं, लागि चले तो नीच ॥ 186 ॥ 

चलती चक्की देख के, दिया कबीरा रोय । 
दुइ पट भीतर आइके, साबित बचा न कोय ॥ 187 ॥ 

जा पल दरसन साधु का, ता पल की बलिहारी । 
राम नाम रसना बसे, लीजै जनम सुधारि ॥ 188 ॥ 

जब लग भक्ति से काम है, तब लग निष्फल सेव । 
कह कबीर वह क्यों मिले, नि:कामा निज देव ॥ 189 ॥ 

जो तोकूं काँटा बुवै, ताहि बोय तू फूल । 
तोकू फूल के फूल है, बाँकू है तिरशूल ॥ 190 ॥ 

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