मंगलवार, 8 सितंबर 2015

कबीर दोहावली -भाग २७

काजल केरी कोठड़ी, तैसी यहु संसार । 
बलिहारी ता दास की, पैसिर निकसण हार ॥ 341 ॥ 

पाणी हीतै पातला, धुवाँ ही तै झीण । 
पवनां बेगि उतावला, सो दोस्त कबीर कीन्ह ॥ 342 ॥ 

आसा का ईंधण करूँ, मनसा करूँ बिभूति । 
जोगी फेरी फिल करूँ, यौं बिनना वो सूति ॥ 343 ॥ 

कबीर मारू मन कूँ, टूक-टूक है जाइ । 
विव की क्यारी बोइ करि, लुणत कहा पछिताइ ॥ 353 ॥ 

कागद केरी नाव री, पाणी केरी गंग । 
कहै कबीर कैसे तिरूँ, पंच कुसंगी संग ॥ 354 ॥ 

मैं मन्ता मन मारि रे, घट ही माहैं घेरि । 
जबहीं चालै पीठि दे, अंकुस दै-दै फेरि ॥ 355 ॥ 

मनह मनोरथ छाँड़िये, तेरा किया न होइ । 
पाणी में घीव नीकसै, तो रूखा खाइ न कोइ ॥ 356 ॥ 

एक दिन ऐसा होएगा, सब सूँ पड़े बिछोइ । 
राजा राणा छत्रपति, सावधान किन होइ ॥ 357 ॥ 

कबीर नौबत आपणी, दिन-दस लेहू बजाइ । 
ए पुर पाटन, ए गली, बहुरि न देखै आइ ॥ 358 ॥ 

जिनके नौबति बाजती, भैंगल बंधते बारि । 
एकै हरि के नाव बिन, गए जनम सब हारि ॥ 359 ॥ 

कहा कियौ हम आइ करि, कहा कहैंगे जाइ । 
इत के भये न उत के, चलित भूल गँवाइ ॥ 360 ॥ 
बिन रखवाले बाहिरा, चिड़िया खाया खेत । 
आधा-परधा ऊबरै, चेति सकै तो चैति ॥ 361 ॥ 

कबीर कहा गरबियौ, काल कहै कर केस । 
ना जाणै कहाँ मारिसी, कै धरि के परदेस ॥ 362 ॥ 

नान्हा कातौ चित्त दे, महँगे मोल बिलाइ । 
गाहक राजा राम है, और न नेडा आइ ॥ 363 ॥ 

उजला कपड़ा पहिरि करि, पान सुपारी खाहिं । 
एकै हरि के नाव बिन, बाँधे जमपुरि जाहिं ॥ 364 ॥ 

कबीर केवल राम की, तू जिनि छाँड़ै ओट । 
घण-अहरनि बिचि लौह ज्यूँ, घणी सहै सिर चोट ॥ 365 ॥ 

मैं-मैं बड़ी बलाइ है सकै तो निकसौ भाजि । 
कब लग राखौ हे सखी, रुई लपेटी आगि ॥ 366 ॥ 

कबीर माला मन की, और संसारी भेष । 
माला पहरयां हरि मिलै, तौ अरहट कै गलि देखि ॥ 367 ॥ 

माला पहिरै मनभुषी, ताथै कछू न होइ । 
मन माला को फैरता, जग उजियारा सोइ ॥ 368 ॥ 

कैसो कहा बिगाड़िया, जो मुंडै सौ बार । 
मन को काहे न मूंडिये, जामे विषम-विकार ॥ 369 ॥ 

माला पहरयां कुछ नहीं, भगति न आई हाथ । 
माथौ मूँछ मुंडाइ करि, चल्या जगत् के साथ ॥ 370 ॥ 

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