मंगलवार, 8 सितंबर 2015

कबीर दोहावली -भाग २९

अब तौ जूझया ही बरगै, मुडि चल्यां घर दूर । 
सिर साहिबा कौ सौंपता, सोंच न कीजै सूर ॥ 401 ॥ 

कबीर घोड़ा प्रेम का, चेतनि चाढ़ि असवार । 
ग्यान खड़ग गहि काल सिरि, भली मचाई मार ॥ 402 ॥ 

कबीर हरि सब कूँ भजै, हरि कूँ भजै न कोइ । 
जब लग आस सरीर की, तब लग दास न होइ ॥ 403 ॥ 

सिर साटें हरि सेवेये, छांड़ि जीव की बाणि । 
जे सिर दीया हरि मिलै, तब लगि हाणि न जाणि ॥ 404 ॥ 

जेते तारे रैणि के, तेतै बैरी मुझ । 
धड़ सूली सिर कंगुरै, तऊ न बिसारौ तुझ ॥ 405 ॥ 

आपा भेटियाँ हरि मिलै, हरि मेट् या सब जाइ । 
अकथ कहाणी प्रेम की, कह्या न कोउ पत्याइ ॥ 406 ॥ 

जीवन थैं मरिबो भलौ, जो मरि जानैं कोइ । 
मरनैं पहली जे मरै, जो कलि अजरावर होइ ॥ 407 ॥ 

कबीर मन मृतक भया, दुर्बल भया सरीर । 
तब पैंडे लागा हरि फिरै, कहत कबीर कबीर ॥ 408 ॥ 

रोड़ा है रहो बाट का, तजि पाषंड अभिमान । 
ऐसा जे जन है रहै, ताहि मिलै भगवान ॥ 409 ॥ 

कबीर चेरा संत का, दासनि का परदास । 
कबीर ऐसैं होइ रक्षा, ज्यूँ पाऊँ तलि घास ॥ 410 ॥ 

अबरन कों का बरनिये, भोपै लख्या न जाइ । 
अपना बाना वाहिया, कहि-कहि थाके भाइ ॥ 411 ॥ 

जिसहि न कोई विसहि तू, जिस तू तिस सब कोई । 
दरिगह तेरी सांइयाँ, जा मरूम कोइ होइ ॥ 412 ॥ 

साँई मेरा वाणियां, सहति करै व्यौपार । 
बिन डांडी बिन पालड़ै तौले सब संसार ॥ 413 ॥ 

झल बावै झल दाहिनै, झलहि माहि त्योहार । 
आगै-पीछै झलमाई, राखै सिरजनहार ॥ 414 ॥ 

एसी बाणी बोलिये, मन का आपा खोइ । 
औरन को सीतल करै, आपौ सीतल होइ ॥ 415 ॥ 

कबीर हरि कग नाव सूँ प्रीति रहै इकवार । 
तौ मुख तैं मोती झड़ै हीरे अन्त न पार ॥ 416 ॥ 

बैरागी बिरकत भला, गिरही चित्त उदार । 
दुहुँ चूका रीता पड़ै वाकूँ वार न पार ॥ 417 ॥ 

कोई एक राखै सावधां, चेतनि पहरै जागि । 
बस्तर बासन सूँ खिसै, चोर न सकई लागि ॥ 418 ॥ 

बारी-बारी आपणीं, चले पियारे म्यंत । 
तेरी बारी रे जिया, नेड़ी आवै निंत ॥ 419 ॥ 

पदारथ पेलि करि, कंकर लीया हाथि । 
जोड़ी बिछटी हंस की, पड़या बगां के साथि ॥ 420 ॥ 

निंदक नियारे राखिये, आंगन कुटि छबाय । 
बिन पाणी बिन सबुना, निरमल करै सुभाय ॥ 421 ॥ 

गोत्यंद के गुण बहुत हैं, लिखै जु हिरदै मांहि । 
डरता पाणी जा पीऊं, मति वै धोये जाहि ॥ 422 ॥ 

जो ऊग्या सो आंथवै, फूल्या सो कुमिलाइ । 
जो चिणियां सो ढहि पड़ै, जो आया सो जाइ ॥ 423 ॥ 

सीतलता तब जाणियें, समिता रहै समाइ । 
पष छाँड़ै निरपष रहै, सबद न देष्या जाइ ॥ 424 ॥ 

खूंदन तौ धरती सहै, बाढ़ सहै बनराइ । 
कुसबद तौ हरिजन सहै, दूजै सह्या न जाइ ॥ 425 ॥ 

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