मंगलवार, 8 सितंबर 2015

कबीर दोहावली -भाग ३५

क्यों नृपनारि निन्दिये, पनिहारी को मान । 
वह माँग सँवारे पीववहित, नित वह सुमिरे राम ॥ 576 ॥ 

जा सुख को मुनिवर रटैं, सुर नर करैं विलाप । 
जो सुख सहजै पाईया, सन्तों संगति आप ॥ 577 ॥ 

साधु सिद्ध बहु अन्तरा, साधु मता परचण्ड । 
सिद्ध जु वारे आपको, साधु तारि नौ खण्ड ॥ 578 ॥ 

कबीर शीतल जल नहीं, हिम न शीतल होय । 
कबीर शीतल सन्त जन, राम सनेही सोय ॥ 579 ॥ 

आशा वासा सन्त का, ब्रह्मा लखै न वेद । 
षट दर्शन खटपट करै, बिरला पावै भेद ॥ 580 ॥ 

कोटि-कोटि तीरथ करै, कोटि कोटि करु धाय । 
जब लग साधु न सेवई, तब लग काचा काम ॥ 581 ॥ 

वेद थके, ब्रह्मा थके, याके सेस महेस । 
गीता हूँ कि गत नहीं, सन्त किया परवेस ॥ 582 ॥ 

सन्त मिले जानि बीछुरों, बिछुरों यह मम प्रान । 
शब्द सनेही ना मिले, प्राण देह में आन ॥ 583 ॥ 

साधु ऐसा चाहिए, दुखै दुखावै नाहिं । 
पान फूल छेड़े नहीं, बसै बगीचा माहिं ॥ 584 ॥ 

साधु कहावन कठिन है, ज्यों खांड़े की धार । 
डगमगाय तो गिर पड़े निहचल उतरे पार ॥ 585 ॥ 

साधु कहावत कठिन है, लम्बा पेड़ खजूर । 
चढ़े तो चाखै प्रेम रस, गिरै तो चकनाचूर ॥ 586 ॥ 

साधु चाल जु चालई, साधु की चाल । 
बिन साधन तो सुधि नाहिं साधु कहाँ ते होय ॥ 587 ॥ 

साधु सोई जानिये, चलै साधु की चाल । 
परमारथ राता रहै, बोलै बचन रसाल ॥ 588 ॥ 

साधु भौरा जग कली, निशि दिन फिरै उदास । 
टुक-टुक तहाँ विलम्बिया, जहँ शीतल शब्द निवास ॥ 589 ॥ 

साधू जन सब में रमैं, दुख न काहू देहि । 
अपने मत गाड़ा रहै, साधुन का मत येहि ॥ 590 ॥ 

साधु सती और सूरमा, राखा रहै न ओट । 
माथा बाँधि पताक सों, नेजा घालैं चोट ॥ 591 

साधु-साधु सब एक है, जस अफीम का खेत । 
कोई विवेकी लाल है, और सेत का सेत ॥ 592 ॥ 

साधु सती औ सिं को, ज्यों लेघन त्यौं शोभ । 
सिंह न मारे मेढ़का, साधु न बाँघै लोभ ॥ 593 ॥ 

साधु तो हीरा भया, न फूटै धन खाय । 
न वह बिनभ कुम्भ ज्यों ना वह आवै जाय ॥ 594 ॥ 

साधू-साधू सबहीं बड़े, अपनी-अपनी ठौर । 
शब्द विवेकी पारखी, ते माथे के मौर ॥ 595 ॥ 

सदा रहे सन्तोष में, धरम आप दृढ़ धार । 
आश एक गुरुदेव की, और चित्त विचार ॥ 596 ॥ 

दुख-सुख एक समान है, हरष शोक नहिं व्याप । 
उपकारी निहकामता, उपजै छोह न ताप ॥ 597 ॥ 

सदा कृपालु दु:ख परिहरन, बैर भाव नहिं दोय । 
छिमा ज्ञान सत भाखही, सिंह रहित तु होय ॥ 598 ॥ 

साधु ऐसा चाहिए, जाके ज्ञान विवेक । 
बाहर मिलते सों मिलें, अन्तर सबसों एक ॥ 599 ॥ 

सावधान और शीलता, सदा प्रफुल्लित गात । 
निर्विकार गम्भीर मत, धीरज दया बसात ॥ 600 ॥ 

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