मंगलवार, 8 सितंबर 2015

कबीर दोहावली -भाग १४

कांचे भाडें से रहे, ज्यों कुम्हार का देह । 
भीतर से रक्षा करे, बाहर चोई देह ॥ 131 ॥ 

साँई ते सब होते है, बन्दे से कुछ नाहिं । 
राई से पर्वत करे, पर्वत राई माहिं ॥ 132 ॥ 

केतन दिन ऐसे गए, अन रुचे का नेह । 
अवसर बोवे उपजे नहीं, जो नहीं बरसे मेह ॥ 133 ॥ 

एक ते अनन्त अन्त एक हो जाय । 
एक से परचे भया, एक मोह समाय ॥ 134 ॥ 

साधु सती और सूरमा, इनकी बात अगाध । 
आशा छोड़े देह की, तन की अनथक साध ॥ 135 ॥ 

हरि संगत शीतल भया, मिटी मोह की ताप । 
निशिवासर सुख निधि, लहा अन्न प्रगटा आप ॥ 136 ॥ 

आशा का ईंधन करो, मनशा करो बभूत । 
जोगी फेरी यों फिरो, तब वन आवे सूत ॥ 137 ॥ 

आग जो लगी समुद्र में, धुआँ ना प्रकट होय । 
सो जाने जो जरमुआ, जाकी लाई होय ॥ 138 ॥ 

अटकी भाल शरीर में, तीर रहा है टूट । 
चुम्बक बिना निकले नहीं, कोटि पठन को फूट ॥ 139 ॥ 

अपने-अपने साख की, सब ही लीनी भान । 
हरि की बात दुरन्तरा, पूरी ना कहूँ जान ॥ 140 ॥ 

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें