गुरुवार, 10 सितंबर 2015

कबीर दोहावली -भाग ४९

॥ काल के विषय मे दोहे ॥ 


जोबन मिकदारी तजी, चली निशान बजाय । 
सिर पर सेत सिरायचा दिया बुढ़ापै आय ॥ 853 ॥

कबीर टुक-टुक चोंगता, पल-पल गयी बिहाय । 
जिव जंजाले पड़ि रहा, दियरा दममा आय ॥ 854 ॥ 

झूठे सुख को सुख कहै, मानत है मन मोद ।
जगत् चबैना काल का, कछु मूठी कछु गोद ॥ 855 ॥ 

काल जीव को ग्रासई, बहुत कह्यो समुझाय । 
कहैं कबीर में क्या करूँ, कोई नहीं पतियाय ॥ 856 ॥ 

निश्चय काल गरासही, बहुत कहा समुझाय ।
कहैं कबीर मैं का कहूँ, देखत न पतियाय ॥ 857 ॥

जो उगै तो आथवै, फूलै सो कुम्हिलाय ।
जो चुने सो ढ़हि पड़ै, जनमें सो मरि जाय ॥ 858 ॥ 

कुशल-कुशल जो पूछता, जग में रहा न कोय ।
जरा मुई न भय मुवा, कुशल कहाँ ते होय ॥ 859 ॥

जरा श्वान जोबन ससा, काल अहेरी नित्त । 
दो बैरी बिच झोंपड़ा कुशल कहाँ सो मित्र ॥ 860 ॥ 

बिरिया बीती बल घटा, केश पलटि भये और । 
बिगरा काज सँभारि ले, करि छूटने की ठौर ॥ 861 ॥ 

यह जीव आया दूर ते, जाना है बहु दूर । 
बिच के बासे बसि गया, काल रहा सिर पूर ॥ 862 ॥

कबीर गाफिल क्यों फिरै क्या सोता घनघोर ।
तेरे सिराने जम खड़ा, ज्यूँ अँधियारे चोर ॥ 863 ॥ 

कबीर पगरा दूर है, बीच पड़ी है रात । 
न जानों क्या होयेगा, ऊगन्ता परभात ॥ 864 ॥ 

कबीर मन्दिर आपने, नित उठि करता आल । 
मरहट देखी डरपता, चौडढ़े दीया डाल ॥ 865 ॥ 

धरती करते एक पग, समुंद्र करते फाल ।
हाथों परबत लौलते, ते भी खाये काल ॥ 866 ॥ 

आस पास जोधा खड़े, सबै बजावै गाल ।
मंझ महल से ले चला, ऐसा परबल काल ॥ 867 ॥ 

चहुँ दिसि पाका कोट था, मन्दिर नगर मझार ।
खिरकी खिरकी पाहरू, गज बन्दा दरबार ॥

चहुँ दिसि ठाढ़े सूरमा, हाथ लिये हाथियार ।
सबही यह तन देखता, काल ले गया मात ॥ 868 ॥ 

हम जाने थे खायेंगे, बहुत जिमि बहु माल ।
ज्यों का त्यों ही रहि गया, पकरि ले गया काल ॥ 869 ॥ 

काची काया मन अथिर, थिर थिर कर्म करन्त । 
ज्यों-ज्यों नर निधड़क फिरै, त्यों-त्यों काल हसन्त ॥ 870 ॥

हाथी परबत फाड़ते, समुन्दर छूट भराय ।
ते मुनिवर धरती गले, का कोई गरब कराय ॥ 871 ॥ 

संसै काल शरीर में, विषम काल है दूर ।
जाको कोई जाने नहीं, जारि करै सब धूर ॥ 872 ॥ 

बालपना भोले गया, और जुवा महमंत ।
वृद्धपने आलस गयो, चला जरन्ते अन्त ॥ 873 ॥ 

बेटा जाये क्या हुआ, कहा बजावै थाल । 
आवन-जावन होय रहा, ज्यों कीड़ी का नाल ॥ 874 ॥


ताजी छूटा शहर ते, कसबे पड़ी पुकार । 
दरवाजा जड़ा ही रहा, निकस गया असवार ॥ 875 ॥

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