गुरुवार, 10 सितंबर 2015

कबीर दोहावली -भाग ३८

कवि तो कोटि-कोटि हैं, सिर के मुड़े कोट । 
मन के कूड़े देखि करि, ता संग लीजै ओट ॥ 651 ॥ 

बोली ठोली मस्खरी, हँसी खेल हराम । 
मद माया और इस्तरी, नहिं सन्तन के काम ॥ 652 ॥ 

फाली फूली गाडरी, ओढ़ि सिंह की खाल । 
साँच सिंह जब आ मिले, गाडर कौन हवाल ॥ 653 ॥ 

बैरागी बिरकत भला, गिरही चित्त उदार । 
दोऊ चूकि खाली पड़े, ताको वार न पार ॥ 654 ॥ 

धारा तो दोनों भली, बिरही के बैराग । 
गिरही दासातन करे बैरागी अनुराग ॥ 655 ॥ 

घर में रहै तो भक्ति करूँ, ना तरू करू बैराग । 
बैरागी बन्ध करै, ताका बड़ा अभाग ॥ 656 ॥ 

॥ भीख के विषय मे दोहे ॥ 


उदर समाता माँगि ले, ताको नाहिं दोष । 
कहैं कबीर अधिका गहै, ताकि गति न मोष ॥ 657 ॥ 

अजहूँ तेरा सब मिटैं, जो मानै गुरु सीख । 
जब लग तू घर में रहै, मति कहुँ माँगे भीख ॥ 658 ॥ 

माँगन गै सो भर रहै, भरे जु माँगन जाहिं । 
तिनते पहिले वे मरे, होत करत है नाहिं ॥ 659 ॥ 

माँगन-मरण समान है, तोहि दई मैं सीख । 
कहैं कबीर समझाय के, मति कोई माँगे भीख ॥ 660 ॥ 

उदर समाता अन्न ले, तनहिं समाता चीर । 
अधिकहिं संग्रह ना करै, तिसका नाम फकीर ॥ 661 ॥ 

आब गया आदर गया, नैनन गया सनेह । 
यह तीनों तब ही गये, जबहिं कहा कुछ देह ॥ 662 ॥ 

सहत मिलै सो दूध है, माँगि मिलै सा पानि । 
कहैं कबीर वह रक्त है, जामें एंचातानि ॥ 663 ॥ 

अनमाँगा उत्तम कहा, मध्यम माँगि जो लेय । 
कहैं कबीर निकृष्टि सो, पर धर धरना देय ॥ 664 ॥ 

अनमाँगा तो अति भला, माँगि लिया नहिं दोष । 
उदर समाता माँगि ले, निश्च्य पावै योष ॥ 665 ॥ 

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